1 सीट से 2 सांसद! जब फूलपुर से नेहरू और मसुरियादीन दोनों आए संसद, 1952 की यह रोचक कहानी पढ़िए
नई दिल्ली :
एक लोकसभा सीट से एक सांसद, तो आप देख रहे हैं… लेकिन क्या कभी एक सीट से दो सांसद या फिर तीन सांसद के बारे में सुना है? भारत में आजादी के बाद 86 ऐसी सीटें थीं, जिनपर दो या तीन सांसदों की व्यवस्था थी. इनमें से एक सीट उत्तर प्रदेश की फूलपुर भी थी. फूलपुर लोकसभा सीट को भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के निर्वाचन क्षेत्र के रूप में याद किया जाता है. हालांकि, कम ही लोग जानते हैं कि नेहरू उस समय उत्तर प्रदेश सीट का प्रतिनिधित्व करने वाले एकमात्र सांसद नहीं थे. 1950 के दशक में 86 लोकसभा सीटों में “दो सदस्यीय” प्रतिनिधित्व की प्रथा थी. इन सीटों पर 2-2 सांसदों को चुना जाता था. 1960 के आसपास ये नियम खत्म कर दिया गया. इस प्रथा को मुख्य रूप से आजादी के शुरुआती वर्षों में एससी और एसटी के प्रतिनिधित्व को सुनिश्चित करने के लिए अपनाया गया था. इस सीट से दूसरे सांसद मसुरियादीन थे, जिन्होंने चार लोकसभा चुनाव जीते: फूलपुर (1952 और 1957) और चायल (1962 और 1967). मसुरियादीन को नेहरू बेहद सम्मान देते थे, उन्हें नेहरू का ‘रनिंग मेट’ भी कहा जाता था.
फूलपुर से नेहरू 3 बार रहे सांसद
यह भी पढ़ें
पंडित जवाहरलाल नेहरू फूलपुर लोकसभा सीट से तीन बार सांसद रहे. पंडित जवाहर लाल नेहरू जिस सीट से चुनाव लड़े थे वह तब इलाहाबाद डिस्ट्रिक्ट (ईस्ट) कम जौनपुर डिस्ट्रिक्ट (वेस्ट) के नाम से थी. इस चुनाव में दूसरे नंबर पर रहे मसुरियादीन भी भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के टिकट पर ही चुनाव लड़े थे. उस समय कांग्रेस का चुनाव चिन्ह दो बैलों की जोड़ी थी. देश में प्रशासनिक ढांचा उस समय तक बेहतर तरीके से व्यवस्थित नहीं हो पाया था. देश में कुल 86 सीटें ऐसी थीं जहां पर एक ही सीट से दो सांसद चुनकर जाने थे. वहीं, एक सीट तो ऐसी थी, जहां से तीन सांसदों को चुना जाना था. दो सांसदों वाली सीट पर हर पार्टी के दो प्रत्याशी व तीन सांसदों वाली सीट पर हर पार्टी को तीन प्रत्याशी लड़ाने का अधिकार था.
नेहरू और मसुरियादीन… दो विपरीत पृष्ठभूमि वाले नेता
यह बेहद दिलचस्प है कि कैसे विपरीत पृष्ठभूमि वाले दो नेताओं (एक अभिजात वर्ग, दूसरा निम्नवर्गीय) एक निर्वाचन क्षेत्र साझा करने आए. इलाहाबाद के आलीशान आनंद भवन से हैरो और कैम्ब्रिज होते हुए नई दिल्ली में तीन मूर्ति तक नेहरू का मार्ग अच्छी तरह से लोग जानते हैं. हालांकि, उनके राजनीतिक साथी की असाधारण यात्रा के बारे में बहुत कम जानकारी है. एक वंचित अनुसूचित जाति परिवार में जन्मे मसुरियादीन एक सरकारी स्कूल में पढ़े. वह महात्मा गांधी से प्रभावित थे, राष्ट्रीय आंदोलन की ओर आकर्षित हुए और मोतीलाल नेहरू के आग्रह पर कांग्रेस में शामिल हो गए. मसुरिया दीन को नमक सत्याग्रह (1930) के दौरान और फिर 1940 और 1942 में जेल में डाल दिया गया था. उन्होंने एक प्रिंटिंग प्रेस भी चलाया था, जो उपनिवेशवाद विरोधी साहित्य प्रकाशित करता था.
नेहरू-मसुरियादीन के बाद फूलपुर से कांग्रेस गायब!
नेहरू-मसुरियादीन के बाद, फूलपुर लोकसभा सीट नेहरू की बहन विजया लक्षमी पंडित का निर्वाचन क्षेत्र बन गया. उन्होंने 1964 में प्रधानमंत्री की मृत्यु के बाद उपचुनाव जीता. इसके बाद वीपी सिंह (1971) और फिर 2004 में माफिया डॉन से राजनेता बने अतीक अहमद (सपा) ने यहां जीत हासिल की. इससे इस सीट पर अवांछित ध्यान आकर्षित हुआ. मंडल के बाद के युग में फूलपुर में अक्सर भाजपा, सपा और बसपा के प्रत्याशी ने ही जीत दर्ज की. इनमें ज्यादातर ओबीसी समुदायों (पटेल, मौर्य) से सांसद चुने जाते रहे हैं. फूलपुर से मौजूदा विधायक प्रवीण पटेल बीजेपी के उम्मीदवार हैं. 54 वर्षीय कानून स्नातक अमरनाथ मौर्य सपा के दावेदार हैं, जबकि 63 वर्षीय हिंदी में स्नातकोत्तर और पार्टी के दिग्गज नेता जगन्नाथ पाल बसपा के उम्मीदवार हैं. पटेल, ब्राह्मण, बनिया और मुस्लिम संख्यात्मक रूप से महत्वपूर्ण हैं.
…तो मसुरियादीन को नेहरू के लिए छोड़ना पड़ा फूलपुर
1957 के लोकसभा चुनाव में इलाहाबाद डिस्ट्रिक्ट (ईस्ट) कम जौनपुर डिस्ट्रिक्ट (वेस्ट) सीट का नाम बदलकर फूलपुर रखना तय किया गया. इस चुनाव में पंडित नेहरू कांग्रेस प्रत्याशी के रूप में पहले स्थान पर थे, वहीं, मसूरियादीन दूसरे स्थान पर और दोनों ही चुनकर संसद गए. 1960 में चुनाव आयोग ने एक सीट पर एक से ज्यादा प्रतिनिधि वाली व्यवस्था को खत्म कर दिया.ऐसे में मसुरियादीन को पंडित नेहरू के लिए फूलपुर की सीट छोड़नी पड़ी गई थी.
ये भी पढ़े :- श्रीनगर में 1996, तो बारामूला में टूटा 1985 का रिकॉर्ड, पाक और उसके आतंक को कश्मीरियों का ‘नीली स्याही’ वाला जवाब