दिल्ली चुनाव में कांग्रेस की अग्निपरीक्षा
दिल्ली, देश की राजनीति और सत्ता की रेस का केंद्र है. इस केंद्र को अपना गढ़ बनाने के लिए हर राजनीतिक पार्टी चुनावी युद्ध में साम, दाम, दंड और भेद का पूरा खेल खेलती है. लेकिन जीत उसी को मिलती है, जो दिल्ली के दिल में काम करने का विश्वास पैदा कर पाता है. चुनाव आयोग ने दिल्ली के चुनावी (Delhi Assembly Election 22025) समर की घोषणा कर दी है, जिसके साथ ही इसमें हिस्सा लेने वाली राजनीतिक पार्टियां अपनी-अपनी व्यूह-रचना में जुट चुकी हैं. हर पार्टी ये दावा कर रही है और विश्वास जता रही है कि इस बार 08 फरवरी को वही दिल्ली के किले को फतह करेगी. दिल्ली का सियासी रण इसलिए भी खास है, क्योंकि इस बार तीन राष्ट्रीय पार्टियां आपस में टकरा रही हैं.
राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा मिलने के बाद आम आदमी पार्टी के लिए दिल्ली में ये पहला चुनाव है. लेकिन दिल्ली के इस चुनावी युद्ध में एक विचित्र प्रकार की बेचैनी आम आदमी पार्टी और कांग्रेस पार्टी के खेमे में दिखाई दे रही है. इसकी वजह भी खास है, क्योंकि 2024 के लोकसभा चुनाव में इन दोनों पार्टियों ने एक साथ मिलकर दिल्ली में लोकसभा का चुनाव लड़ा था.दिल्ली की सात लोकसभा सीटों में से चार पर आम आदमी पार्टी और तीन सीटों पर कांग्रेस ने भारतीय जनता पार्टी से सीधा मुकाबला किया था. लेकिन इन सातों सीटों पर आम आदमी पार्टी और कांग्रेस दोनों की बुरी हार हुई. अब हालत ये है कि जो दो राष्ट्रीय पार्टियां लोकसभा चुनाव में गलबहियां कर रही थीं, आज चंद महीने के भीतर ही विधानसभा चुनाव में एक दूसरे के खिलाफ ताल ठोक रही हैं.
दिल्ली बना इंडी गठबंधन का रणक्षेत्र
लोकसभा चुनाव के दौरान जिस दिल्ली से इंडी गठबंधन की एकजुटता की तस्वीरें पूरे देश के सामने पेश की जाती थीं, आज वही दिल्ली इंडी गठबंधन की पार्टियों का रणक्षेत्र बन गया है. इंडी गठबंधन में देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस के खिलाफ गठबंधन की सभी पार्टियों ने कमर कस ली है. इस गठबंधन की अधिकतर पार्टियां आम आदमी पार्टी के समर्थन की घोषणा करते हुए कांग्रेस के खिलाफ ही मैदान में उतर आई हैं. उत्तर प्रदेश से समाजवादी पार्टी, पश्चिम बंगाल से तृणमूल कांग्रेस, बिहार से राष्ट्रीय जनता दल, महाराष्ट्र से शिवसेना (उद्धव), तमिलनाडु से डीएमके और जम्मू-कश्मीर से नेशनल कॉन्फ्रेंस.
दिल्ली के विधानसभा चुनाव से उभरती हुई तस्वीर, देश के उस राजनीतिक दौर की याद को ताजा कर रही है, जब गैर कांग्रेसवाद की राजनीति पूरे चरम पर थी और हर राज्य की क्षेत्रीय पार्टियां कांग्रेस को पटखनी देने के गुणा-भाग के गणित में शामिल रहती थीं. इस बार दिल्ली चुनाव में इंडी गठबंधन की पार्टियों के बीच चल रहा महासमर इस बात का सबूत है कि इन पार्टियों ने गठबंधन सिर्फ अपनी राजनीतिक स्थिति को मजबूत करने के लिए किया था और जैसे ही क्षेत्रीय पार्टियों को लगा कि कांग्रेस उनकी राजनीतिक स्थिति को कमजोर कर रही है, सभी क्षेत्रीय पार्टियां कांग्रेस के खिलाफ लामबंद हो गईं.
कांग्रेस में भ्रम की स्थिति
कांग्रेस और क्षेत्रीय पार्टियों के बीच जो अघोषित युद्ध चल रहा है, उसमें कांग्रेस की स्थिति सांप और छछूंदर जैसी हो गई है. एक तरफ अपनी राजनीतिक स्थिति मजबूत करने के लिए हर राज्य में क्षेत्रीय दलों के खिलाफ चुनाव लड़ना कांग्रेस की मजबूरी है, तो दूसरी तरफ राष्ट्रीय राजनीति में नेतृत्व को अपने हाथ में रखने के लिए इन क्षेत्रीय दलों का सहयोग औऱ समर्थन लेना, राजनीतिक प्रबंधन की जरूरत है. दिल्ली से पहले, यही हाल हरियाणा के विधानसभा चुनाव में देखने को मिला, जहां आम आदमी पार्टी और कांग्रेस एक दूसरे के खिलाफ चुनाव लड़ी. हरियाणा के साथ महाराष्ट्र में भी महाविकास अघाड़ी की शिवसेना (उद्धव) और एनसीपी (शरद) के साथ कांग्रेस की लगातार खटपट और तनातनी बनी रही. यहां तक कि समाजवादी पार्टी ने महाराष्ट्र में इंडी गठबंधन से नाता तोड़ लिया.
मध्य प्रदेश के 2023 के विधानसभा चुनाव में भी यही हाल दिखा था, जब कांग्रेस ने समाजवादी पार्टी के साथ एक सीट पर भी समझौता नहीं किया. बिहार में भी ऱाष्ट्रीय जनता दल कांग्रेस को अपना धुर विरोधी मानता है. उसने लोकसभा में कांग्रेस को सबसे कम 9 सीटें दीं, जिनमें से 6 सीटें वो हार गईं. पश्चिम बंगाल में तो कांग्रेस ने अपनी स्थिति को मजबूत करने के लिए वामपंथी दलों से हाथ मिला लिया और तृणमूल कांग्रेस को 2021 के विधानसभा चुनाव में चुनौती दे दी, फिर भी तृणमूल कांग्रेस जीत गई. वहीं केरल में कांग्रेस ने अपनी राजनीतिक स्थिति मजूबत करने के लिए वामपंथी दलों के खिलाफ ताल ठोक दी. इस बार दिल्ली के विधानसभा चुनाव ने कांग्रेस को मजबूरी और जरूरत के महाजाल में एक बार फिर से उलझा दिया है.
“दुविधा में दोनों गए, माया मिली न राम”
2014 से लगातार लोकसभा चुनाव और लगभग सभी महत्वपूर्ण विधानसभा चुनाव में हार का सामना करने वाली कांग्रेस पार्टी ने पिछले साल कर्नाटक के बेलगावी अधिवेशन में एक बड़ा निर्णय लिया. यह निर्णय लिया गया कि साल 2025 को ‘संगठन सृजन अभियान’ के रूप में मनाया जाएगा. इसके तहत पूरे साल, हर राज्य, हर जिले और ब्लॉक स्तर पर कांग्रेस पार्टी संगठन को फिर से मजबूत करने का अभियान चला रही है. ऐसे में यह जरूरी हो जाता है कि कांग्रेस हर चुनाव पूरे जोश और उत्साह से लड़े. कांग्रेस के इस जोश और उत्साह की पहली अग्निपरीक्षा दिल्ली विधानसभा चुनाव में सामने आ गई है. इस उत्साह का पहला सबूत यह है कि कांग्रेस ने दिल्ली में आम आदमी पार्टी के खिलाफ सभी दमदार उम्मीदवारों को खड़ा किया है. दूसरा सबूत यह है कि दिल्ली में कांग्रेस के नेता खुलकर केजरीवाल के खिलाफ बयान दे रहे हैं.
कांग्रेस के नेता अजय माकन ने दिल्ली सरकार के दस सालों के कामकाज पर श्वेत पत्र जारी करते समय प्रेस कॉन्फ्रेंस में केजरीवाल के बारे में कहा- “वो एंटी नेशनल है, उसकी कोई विचारधारा नहीं है, सिवाय अपने पर्सनल एंबिशन के”. आगे उन्होंने यह भी कहा- “मैं कभी भी इस चीज का पक्षधर नहीं रहा हूं, न था और न रहूंगा कि केजरीवाल जैसे व्यक्ति के ऊपर भरोसा किया जा सकता है. केजरीवाल हिन्दुस्तान की राजनीति के अंदर अपने खुद के एंबिशन को पूरा करने के लिए किसी भी हद तक जा सकता है, उसकी कोई विचारधारा नहीं है, कोई सोच नहीं है.”
कांग्रेस के इस जबरदस्त प्रहार से अरविंद केजरीवाल बिफर पड़े और उन्होंने कांग्रेस को इंडी गठबंधन से अलग-थलग करने की रणनीति पर काम करना शुरू कर दिया. इसका नतीजा यह हुआ कि इंडी गठबंधन के सभी दल केजरीवाल के समर्थन में खड़े हो गए. यहां तक कि कांग्रेस केजरीवाल को एंटी नेशनल साबित करने वाले सबूतों पर, जो प्रेस कॉन्फ्रेंस 05 जनवरी को करने वाली थी, उस प्रेस कॉन्फ्रेंस को तमिलनाडु के सहयोगी दल डीएमके के दबाव के कारण टाल देना पड़ा. अब यह देखना है कि कांग्रेस केजरीवाल को एंटी नेशनल साबित करने वाला सबूत जनता के सामने कब लाती है.
दिल्ली में कांग्रेस कैसे खत्म हुई
आज दिल्ली में आम आदमी पार्टी और कांग्रेस के बीच जो महासमर चल रहा है, उसका सबसे बड़ा कारण अरविंद केजरीवाल हैं. अरविंद केजरीवाल ने 2011 में कांग्रेस के खिलाफ भ्रष्टाचार का आंदोलन खड़ा करके 2013 में दिल्ली की सत्ता पर कब्जा किया. केजरीवाल ने इस चुनाव में पूरी तरह से कांग्रेस पार्टी के वोटों पर कब्जा जमा लिया. 2008 के विधानसभा चुनाव में जहां कांग्रेस को 40.3 प्रतिशत और भाजपा को 36.3 प्रतिशत मत मिले थे. वहीं 2013 के चुनाव में जब आम आदमी पार्टी ने दिल्ली में चुनाव लड़ा तो कांग्रेस पार्टी का मत प्रतिशत गिरकर 24.7 प्रतिशत तक पहुंच गया और आम आदमी पार्टी का मत प्रतिशत 29.7 प्रतिशत तक पहुंच गया. इस चुनाव में भाजपा को मिले मत में 2008 के मुकाबले महज 3 प्रतिशत की कमी आई थी. 2015 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस का मत प्रतिशत घटकर 9.7 प्रतिशत तक पहुंच गया और आम आदमी पार्टी का मत प्रतिशत बढ़कर 54.5 प्रतिशत हो गया।. मगर भाजपा का मत प्रतिशत तब भी 32.3 प्रतिशत ही रहा.
पिछले यानि 2020 के विधानसभा चुनाव की बात करें तो तो कांग्रेस का मत प्रतिशत बुरी तरह से घटते हुए 4.3 प्रतिशत तक आ गया, जबकि आम आदमी पार्टी का मत प्रतिशत 53.8 प्रतिशत पर रहा. इस चुनाव में भाजपा ने अपने मत प्रतिशत को बढ़ाकर 38.7 प्रतिशत तक पहुंचा लिया. इस तरह से पिछले तीन विधानसभा चुनावों में भाजपा का मत प्रतिशत जहां 33 से बढ़कर 38 प्रतिशत तक पहुंच गया, वहीं कांग्रेस का मत 40 प्रतिशत से घटकर 4 प्रतिशत तक आ गया, जिसका पूरा फायदा आम आदमी पार्टी ने उठाया. ऐसे में अब कांग्रेस के सामने सबसे बड़ा सवाल यही है कि वह गठबंधन का धर्म निभाए या दिल्ली में अपने अस्तित्व को बचाए. अरविंद केजरीवाल और उनकी आम आदमी पार्टी के खिलाफ कांग्रेस जिस तेवर के साथ चुनाव मैदान में उतरती दिखी, उसे बरकरार रख पाती है या नहीं, यही उसकी अग्निपरीक्षा है.
हरीश चंद्र बर्णवाल वरिष्ठ पत्रकार और लेखक हैं…
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