अखबार बेच कर पढ़े , फिर बच्चों को पढ़ाया, पुरस्कार जीतने वाले द्विति साहू ने सुनाई संघर्ष और सफलता की कहानी
खाने को रोटी नहीं थी, पर शिक्षा की भूख कभी कम नहीं हुई. 1997 से 2001 तक पत्रकारिता की पढ़ाई की, और फिर सरकारी शिक्षक बनने की ट्रेनिंग ली. शिक्षक बनने के बाद उन्होंने संकल्प लिया कि उनके गांव के बच्चे उन परेशानियों से न गुजरें जिनसे वे गुज़रे थे.
साहू ने कहा, “मैंने अपने गांव के अनुसूचित जाति और जनजाति के बच्चों को पढ़ाया, और उनके सर्वांगीण विकास के लिए खूब मेहनत की. हमने बहुत सारे अनोखे तरीके अपनाए ताकि बच्चों की रुचि पढ़ाई में बनी रहे”
पत्रकारिता के अनुभव को बच्चों की शिक्षा में उतारा.
शिक्षक के रूप में साहू केवल किताबों तक सीमित नहीं रहे. अपने पत्रकारिता के अनुभव को उन्होंने बच्चों की शिक्षा में उतारा. उन्होंने बच्चों को वोकेशनल कोर्सेज सिखाए और शिक्षा को रुचिकर बनाने के लिए चाइल्ड रिपोर्टिंग, बाल अदालत, कोऑपरेटिव स्टोर, पेंटिंग, आर्ट, पपेट शो जैसी कई गतिविधियां शुरू कीं.
बिजली के अभाव में भी साहू ने हार नहीं मानी. वह इंटरनेट एक्सेस वाले इलाकों में गए, वीडियो डाउनलोड किए और अपने बच्चों के लिए गांव में वापस लाए. शिक्षा की रोशनी बिना बिजली के भी जलती रही. साहू के प्रयासों का सबसे बड़ा फल तब मिला, जब उन्हें राष्ट्रीय शिक्षक पुरस्कार से सम्मानित किया गया.
उन्होंने कहा, “आज मेरे काम को राष्ट्रीय स्तर पर स्वीकृति मिली है, इससे ज्यादा खुशी की बात मेरे लिए कुछ भी नहीं है.” द्विती चंद्र साहू की यह कहानी केवल गरीबी से लड़ने की नहीं है, बल्कि सपनों को थामे रखने की जिद की है.