देश

Explainer: नेपाल की सड़कों पर राजा और हिंदू राष्ट्र के लिए उबाल क्यों है, समझिए 


नई दिल्ली:

साल 2008, नेपाल के सियासी दलों ने संसद की घोषणा के जरिए 240 साल पुरानी राजशाही को खत्म किया. हिंदू राष्ट्र को एक धर्मनिरपेक्ष, संघीय, लोकतांत्रिक गणराज्य में बदला गया. 17 साल बाद अब काठमांडू की सड़कों पर राजशाही की बहाली और हिंदू राष्ट्र की मांग उबाल मार रही है. काठमांडू के कुछ हिस्सों में यह आंदोलन इतना हिंसक हुआ कि  53 पुलिसकर्मी, सशस्त्र पुलिस बल के 22 जवान और 35 प्रदर्शनकारी घायल हो गए. 14 इमारतों में आग लगा दी गई. नौ इमारतों में तोड़फोड़ हुई. दर्जनों निजी और सरकारी वाहनों में आगजनी और तोड़फोड़ की गई. कई इलाकों में कर्फ्यू लगाना पड़ा. आखिर नेपाल में चल क्या रहा है, समझिए वरिष्ठ पत्रकार और नेपाल की राजनीति पर गहरी नजर रखने वाले प्रेम पुनेठा से…

काठमांडू में राजतंत्र समर्थक आंदोलनकारियों और पुलिस के बीच हिंसक टकराव ने राजा और राजतंत्र को नेपाल की राजनीति के केंद्र में ला दिया है. यह आंदोलन पुराने राजतंत्र को बहाल करने का प्रयास मात्र है. माओवादियों के 10 साल के जनयुद्ध और मुख्यधारा की राजनीतिक पार्टियों के जन आंदोलन के बाद बनी पहली संविधान सभा ने 2008 में नेपाल के 238 साल पुराने राजतंत्र को खत्म कर देश को गणतांत्रिक व्यवस्था में परिवर्तित कर दिया था. लेकिन इस सियासी बदलाव के बावजूद नेपाली समाज में राजा के प्रति आकर्षण कम नहीं हुआ था. 2008 में सभी राजनीतिक दल माओवादियों के जनयुद्ध से परेशान थे और एक नई संविधानिक व्यवस्था की ओर बढ़ना चाहते थे. इसलिए संघात्मक शासन, गणतंत्र और धर्मनिरपेक्ष नेपाल की कल्पना का कोई विशेष विरोध नहीं हुआ. लेकिन राजा समर्थक ताकतें वहां मौजूद थीं.

जब पहली संविधान सभा नेपाल का संविधान बनाने में असफल रही और 2013 में दूसरी संविधान सभा का गठन हुआ, तो नेपाली कांग्रेस, एमाले और माओवादी जैसे सभी राजनीतिक दल लगभग एक समान एजेंडे को लेकर चल रहे थे. लेकिन राजा समर्थक राष्ट्रीय प्रजातांत्रिक पार्टी का चुनावी अजेंडा अलग था. वह हिंदू राष्ट्र, संवैधानिक राजतंत्र और एकात्मक शासन का झंडा उठाए चल रही थी.

यह भी पढ़ें :-  रवांडा नरसंहार: 30वीं बरसी पर रवांडा के झंडे के रंग वाली रोशनी में नहाया कुतुब मीनार

इस चुनाव में उसे प्रत्यक्ष निर्वाचन में कोई सफलता नहीं मिली, लेकिन समानुपातिक प्रणाली में उसके 25 प्रत्याशी संविधान सभा में जगह पा गए. लेकिन 2017 में संविधान लागू होने के बाद उसकी स्थिति खराब हो गई और उसे केवल 2 प्रतिशत मत मिले. यह मत प्रतिशत 2022 में बढ़कर 6 प्रतिशत हो गया. इसके बाद राष्ट्रीय प्रजातांत्रिक पार्टी में विभाजन भी हो गया. इसके बाद भी यह पार्टी काफी प्रभावशाली है. मुख्य राजनीतिक दलों से मोहभंग की हालत यह है कि राजा समर्थक आंदोलन का चेहरा बने दुर्गा परसाई एक पुराने माओवादी हैं.

राजा के प्रति सहानुभूति उभरने के दो प्रमुख कारण हैं. पहला नेपाल के राजनीतिक दलों के बीच सिद्धांत की प्रतिस्पर्धा और सत्ता के प्रति अतिरिक्त अनुराग. 2008 से 2025 के 17 सालों में यहां 11 सरकारें बन चुकी हैं. इसका सीधा अर्थ है कि कोई भी सरकार डेढ़ साल के औसत कार्यकाल की रहीं. तीन प्रमुख राजनीतिक दल कांग्रेस, माओवादी और एमाले आपस में कुर्सी दौड़ में इतना अधिक व्यस्त रहे कि जनता के प्रति इनका कोई ध्यान नहीं रहा.

Latest and Breaking News on NDTV

केंद्र की अस्थिरता का प्रभाव राज्यों पर भी पड़ा और वहां भी सरकारें केंद्र के साथ ही बनती बिगड़ती रहीं. इतनी अधिक राजनीतिक अस्थिरता के कारण जनता का विशेष तौर पर मध्यम वर्ग का इन राजनीतिक दलों से मोहभंग होना शुरू हो गया. पिछले चुनाव में राष्ट्रीय स्वतंत्र पार्टी के तौर पर एक राजनीतिक दल का उदय हो गया. अपने जन्म के छह माह में ही इसने चुनाव में अपनी असरदार मौजूदगी दर्ज करा दी. इस पार्टी के नेता को उप-प्रधानमंत्री पद पर पहुंचा दिया. इस पार्टी को मध्यम वर्ग के अलावा विदेशों में रहने वाले नेपालियों का समर्थन भी हासिल था.

यह भी पढ़ें :-  अदाणी ग्रीन एनर्जी ने SECI के साथ किया 1,799 मेगावाट सौर बिजली आपूर्ति का समझौता

राजतंत्र के समर्थन में इस आंदोलन का दूसरा कारण भारत में भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व में उभरता दक्षिणपंथ और राष्ट्रवाद है. नेपाल में यह राजा समर्थक नेताओं को प्रभावित करता है. फिर उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ वर्तमान में गोरखपुर स्थित गोरक्ष पीठ के महंत हैं और गोरक्ष पीठ का नेपाल की जनता में काफी प्रभाव है और राजा भी उनको अपने गुरू के रूप में मान्यता देते हैं.

इधर नेपाल के अंदर राजा के समर्थन और विरोध में दलों और संगठनों के बीच गोलबंदी होने लगी है. राजा समर्थक दल ‘नवीन समझदारी’ नाम से एकत्रित होने लगे हैं, तो विरोधी समाजवादी फ्रंट के तहत एकजुट हो रहे हैं. एमाले और माओवादी, दोनों दल राजा को चुनौती दे रहे हैं कि अगर लोकप्रिय हो तो चुनाव में आकर दिखाओ. प्रचंड इसके लिए वर्तमान प्रधानमंत्री केपी ओली को जिम्मेदार ठहरा रहे हैं कि उनके कमजोर नेतृत्व के कारण राजा को सहानुभूति मिली है. यह मामला अभी शांत होने वाला नहीं है और भविष्य में यही नेपाल की राजनीति के केंद्र में रहेगा.



Show More

संबंधित खबरें

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button