ऐंटीबायोटिक दवा हो रही फेल? जानिए AI ने कैसे की लंदन के प्रोफेसर की मदद कि वो हो गए चकित

AI Role In Medicine: दुनिया के सामने लगभग हर मोर्चे पर नई और कठिन चुनौतियां हैं. इनसे निपटने की लगातार कोशिशें हो रही हैं. ऐसी ही एक चुनौती चुपचाप एक शांत महामारी की शक्ल में लगातार हम सबको घेरती जा रही है. करोड़ों लोगों को इस बात का अहसास भी नहीं है कि संक्रमणों यानी इन्फेक्शन्स से निपटने के लिए जो सामान्य ऐंटीबायटिक्स वो अभी तक लेते रहे हैं वो धीरे धीरे उनकी बीमारी से निपटने में नाकाम होती जा रही है. ऐसा इसलिए क्योंकि ऐंटीबायटिक्स का इस्तेमाल अंधाधुंध तरीके से हो रहा है. कई लोग डॉक्टर से परामर्श किए बिना ख़ुद ही ऐंटीबायोटिक ले लेते हैं, जो बिलकुल नहीं लेना चाहिए. कर्नाटक सरकार के एक गुपचुप सर्वे से तो ये पता लगा कि 80% दवा विक्रेता बिना डॉक्टर की पर्ची के ऐंटीबायोटिक की बिक्री कर देते हैं. इन हालात में ऐसे सुपरबग विकसित हो रहे हैं जिन पर ये ऐंटीबायटिक अब कारगर ही नहीं हो रहे. वैज्ञानिक इस चुनौती से निपटने के लिए दिन रात रिसर्च कर रहे हैं.
इस दिशा में एक उत्साहजनक कामयाबी मिली है, उम्मीद की एक और किरण सामने आई है. शोध प्रकाशन से जुड़ी दुनिया की प्रतिष्ठित पत्रिका नेचर के मुताबिक वैज्ञानिकों ने एक ऐसा नया ऐंटीबायोटिक मॉलिक्यूल खोजा है जो बीमारी फैलाने वाले कई तरह के बैक्टीरिया को मार सकता है. इनमें वो बैक्टीरिया भी शामिल हैं जिन पर आम ऐंटीबायोटिक अब बेअसर हो रही हैं. ख़ास बात ये है कि ऐंटीबायोटिक का ये मॉलिक्यूल इंसानी कोशिकाओं यानी सेल्स के लिए ख़तरनाक नहीं है. इस शोध में दिलचस्प तथ्य ये है कि नई तरह के इस ऐंटीबायोटिक का मॉलिक्यूल एक टैक्निशियन के बागीचे की मिट्टी के सैंपल्स में मिला है. मिट्टी के सैंपल्स से कई माइक्रोब्स निकाले गए इनमें से एक माइक्रोब ने पेट की बीमारी से जुड़े एक बैक्टीरिया Escherichia coli को ख़त्म करने की अद्भुत क्षमता दिखाई.

बोस्टन के मैसाचुसेट्स की नॉर्थ ईस्टर्न यूनिवर्सिटी के एक माइक्रोबायोलोजिस्ट किम लुइस के मुताबिक ये खोज बता रही है कि कई बार हमारी नज़रों के सामने इतनी ज़बर्दस्त चीज़ें छुपी रहती हैं जो काफ़ी काम की हो सकती हैं. वैज्ञानिकों के मुताबिक इस नए तरह के ऐंटीबायोटिक का मॉलिक्यूल बैक्टीरिया में प्रोटीन बनाने के लिए ज़िम्मेदार राइबोज़ोम्स पर इतने कारगर तरीके से काम करता है जैसे बाकी ऐंटीबायोटिक्स नहीं कर पाती. किम लुइस के मुताबिक राइबोज़ोम एक आकर्षक ऐंटीबायोटिक टारगेट है, क्योंकि बैक्टीरिया आम तौर पर उन दवाओं के प्रति प्रतिरोध विकसित नहीं कर पाते जो राइबोज़ोम को निशाना बनाती हैं. ये ऐंटीबायोटिक ऐसी ही एक दवा है.
नेचर पत्रिका ने इस शोध के सहलेखक और कनाडा के हैमिल्टन की मैक मास्टर यूनिवर्सिटी के एक कैमिकल बायोलोजिस्ट गैरी राइट के हवाले से बताया कि ऐंटीबायोटिक रिज़िस्टेंस, दवाओं की पूरी व्यवस्था के लिए एक बड़े ख़तरे की तरह है. राइट और उनके वैज्ञानिक साथी ऐसे माइक्रोब्स का पता लगाने पर काम कर रहे हैं, जिनमें बीमारी पैदा करने वाले बैक्टीरिया को मारने की नई क्षमताएं हों.
नई ऐंटीबायोटिक्स की खोज इसलिए बहुत ज़रूरी है क्योंकि दुनिया की एक बड़ी आबादी में बैक्टीरिया ने सामान्य ऐंटिबायोटिक्स के प्रति प्रतिरोध विकसित कर लिया है, जिसकी वजह से उन पर ये ऐंटीबायोटिक्स काम नहीं कर पातीं. ऐंटीबायोटिक्स के प्रति प्रतिरोधक क्षमता विकसित कर चुके बैक्टीरिया को सुपरबग कहा जाता है. सुपरबग की समस्या दुनिया के सामने एक बड़ी चुनौती बन गई है. ऐसा हुआ है ऐंटीबायोटिक्स के बढ़ते दुरुपयोग के कारण. जैसा कि हम जानते हैं कई लोग बीमारियों के इलाज के लिए ख़ुद ही ऐंटीबायोटिक्स यानी ऐंटीमाइक्रोबियल ड्रग्स का इस्तेमाल शुरू कर देते हैं. ऐंटीमाइक्रोबियल रिज़िस्टेंस तब होता है जब संक्रामक माइक्रोब्स जैसे बैक्टीरिया, वायरस, फंजाई या अन्य परजीवी ऐसी क्षमता विकसित कर लें कि वो उनसे निपटने से जुड़ी दवाओं को बेअसर कर दें.

दुनिया में इसे साइलेंट एपिडेमिक माना जा रहा है जो मानवता के सामने सबसे बड़े ख़तरे के तौर पर खड़ा हो गया है. पिछले साल सितंबर में संयुक्त राष्ट्र महासभा में ऐंटीमाइक्रोबियल रेज़िस्टेंस के मुद्दे पर एक उच्च स्तरीय बैठक हुई. भारत के लिहाज़ से ये ज़्यादा अहम है क्योंकि दुनिया में सबसे अधिक ऐंटीबायोटिक रेज़िस्टेंट टीबी से ग्रस्त आबादी भारत में हैं. इसकी वजह है ऐंटीबायोटिक्स का ज़रूरत से ज़्यादा इस्तेमाल और ग़लत इस्तेमाल.
अमेरिका के Centers for Disease Control and Prevention (CDC) ने ऐसे कई बैक्टीरिया का पता लगाया है जिन्होंने पारंपरिक ऐंटीबायोटिक्स को बेअसर कर दिया है. दवा कंपनियां ऐसे में नई ऐंटीबायोटिक्स बना रही हैं लेकिन इसमें भी उतनी कामयाबी नहीं मिल रही. WHO के मुताबिक क़रीब 30 नए ऐंटीबायोटिक्स को तैयार करने पर काम चल रहा है लेकिन इन पर भी बैक्टीरिया भारी पड़ सकते हैं. ऐसे में वैज्ञानिक अब ऐंटीबायोटिक्स से ऊपर उठ कर नई रणनीति बना रहे हैं. इसके लिए नए डिज़ाइनर मॉलिक्यूल्स, cell-slicing enzymes जैसी नई टैक्नोलॉजी पर काम किया जा रहा है.
हर साल दुनिया भर में क़रीब 77 लाख लोगों की बैक्टीरियल इन्फेक्शन से मौत होती है और इनमें से क़रीब 50 लाख मौतें ऐंटीबायोटिक रिज़िस्टेंस या सुपरबग से जुड़ी हैं. 2019 में भारत में ऐंटीबायोटिक रेज़िस्टेंस से जुड़ी मौतों की संख्या 3 लाख थी. इसी का तोड़ निकालने में जुटे वैज्ञानिकों को इस साल एक और बड़ी कामयाबी मिली. जिस जटिल समस्या की तह तक पहुंचने में माइक्रोबायोलोजिस्ट्स को दशक भर से ज़्यादा लग गया इसका हल निकल गया दो ही दिन के अंदर, एक नए artificial intelligence (AI) tool के इस्तेमाल से.

इंपीरियल कॉलेज लंदन में माइक्रोबायोलोजी के प्रोफ़ेसर जोज़े पेनेडीज़ और उनकी टीम को ये साबित करने में सालों लग गए कि सुपरबग ऐंटीबायोटिक्स के प्रति क्यों प्रतिरोधक हो गई हैं. उन्होंने एक शानदार हाइपोथीसिस तैयार की. इसके बाद उन्होंने गूगल द्वारा तैयार किए गए एक AI टूल co-scientist के सामने भी ये समस्या रखी और हैरानी की बात ये है कि 48 घंटे के अंदर ही co-scientist नाम के AI टूल ने भी वही नतीजा निकाला, उसी हाइपोथीसिस की पुष्टि की जिसे सालों के शोध के बाद प्रोफ़ेसर जोज़े पेनेडीज़ की टीम ने तैयार किया था. इस हाइपोथिसिस के मुताबिक सुपरबग्स वायरस जैसी टेल्स का इस्तेमाल कर अलग अलग प्रजातियों में पहुंच जाते हैं. AI टूल द्वारा भी ठीक अपनी हाइपोथिसिस की पुष्टि किए जाने से वो हैरान रह गए. हैरानी इसलिए भी कि उनकी रिसर्च अभी तक पब्लिश नहीं हुई थी इसलिए AI सिस्टम के लिए उस तक पहुंचना असंभव था. इसका मतलब ये है कि AI ने भी मौलिक तरीके से इस सवाल पर काम किया और उसका नतीजा निकाल दिया.
प्रोफ़ेसर जोज़े पेनेडीज़ को यकीन नहीं हुआ
प्रोफ़ेसर जोज़े पेनेडीज़ ने बीबीसी को बताया कि उन्हें काफ़ी देर तक तो इस बात पर यकीन ही नहीं हुआ. उन्होंने गूगल तक को पत्र लिख कर पूछा कि क्या उनके कम्प्यूटर तक गूगल की पहुंच है, लेकिन गूगल ने कहा कि गूगल उनके कंप्यूटर से कभी जुड़ा ही नहीं. इससे उन्हें इस बात का यकीन हो गया कि AI ऐसी समस्याओं के हल में बहुत ही अहम साबित हो सकता है. प्रोफ़ेसर जोज़े पेनेडीज़ ने माना कि AI के इस्तेमाल से सालों की मेहनत से बचा जा सकता है. उन्होंने ये भी कहा कि AI टूल co-scientist ने न सिर्फ़ एक हाइपोथीसिस सामने रखी बल्कि चार अन्य हाइपोथीसिस भी तैयार कर दीं और सभी तार्किक हैं. ऐसा उन्होंने कभी सोचा तक नहीं था. ख़ास बात ये है कि Google के AI टूल co-scientist ने लॉन्च होने के फौरन बाद ये कमाल कर दिया.
AI का महत्व वैज्ञानिक भी अब मान रहे
ये वाकया एक बार फिर साबित कर रहा है कि AI का इस्तेमाल साइंस को नई ऊंचाइयों पर पहुंचा सकता है. बड़ी से बड़ी बीमारी का इलाज निकालने में अहम हो सकता है. सुपरबग ऐसी ही एक चुनौती है. Co Scientist गूगल के Gemini 2.0 AI system पर तैयार किया गया है जो वैज्ञानिकों के लिए उनके साथी की तरह काम कर सकता है. नई हाइपोथीसिस और रिसर्च के नए प्रस्ताव तैयार कर सकता है. गूगल के मुताबिक उनका ये टूल बायोमेडिकल और वैज्ञानिक खोजों को तेज़ करने और नए विचारों को तैयार करने में रिसर्चर्स की सहायता के लिए तैयार किया गया है और इसका नतीजा लॉन्च होने के तुरंत बाद ही दिखना भी शुरू हो गया है. ऐसे में भविष्य में AI की भूमिका को लेकर चर्चाएं और तेज़ हो गयी हैं. कई जानकार जहां मानते हैं कि AI भविष्य में वैज्ञानिकों की जगह ले सकता है, नौकरियां खा सकता है, वहीं कई लोग मानते हैं कि ये नई खोज करने में वैज्ञानिकों के लिए बहुत ही सहायक टूल की तरह साबित हो सकता है. प्रोफ़ेसर जोज़े पेनेडीज़ का कहना है कि मैं इससे जुड़े डर को समझता हूं लेकिन ऐसे बहुत ही शक्तिसाली टूल, उसके नकारात्मक पहलुओं पर काफ़ी भारी पड़ते हैं. मुझे लगता है कि इससे निश्चित तौर पर विज्ञान बदल जाएगा.

बीते एक साल में AI के नए नए टूल्स विकसित हुए हैं. वैसे इससे पहले ही AI के कारनामों ने असर दिखाना शुरू कर दिया था. जैसे 2023 में भी AI के इस्तेमाल से एक नए ऐंटीबायोटिक की खोज में बड़ी कामयाबी मिल गई थी. अमेरिका और कनाडा के वैज्ञानिकों ने AI के इस्तेमाल से एक नया ऐंटीबायोटिक खोजा था जो एक सुपरबग को मारने की क्षमता रखता है. नेचर कैमिकल बायोलोजी में पब्लिश हुई इस रिसर्च में कनाडा की मैकमास्टर यूनिवर्सिटी और अमेरिका की मैसाचुसेट्स इंस्टिट्यूट ऑफ़ टैक्नोल़जी ने हिस्सा लिया. 2017 में ऐसिनैटोबैक्टर बोमैनियाई (Acinetobacter baumannii) नाम के एक बैक्टीरिया को WHO ने एक सुपरबग के तौर पर पहचाना था. जिसे ख़त्म करना बहुत मुश्किल था. ये बैक्टीरिया न्यूमोनिया, मेनिंजाइटिस जैसी बीमारियों की वजह बन सकता है. आम तौर पर ये बैक्टीरिया अस्पतालों में पाया जाता है जहां ये लंबे समय तक रह सकता है.

WHO का मानना है कि इस वजह से न्यूमोनिया, टीबी या दूषित खाना खाने से होने वाली बीमारियों का इलाज मौजूदा दवाओं से किया जाना मुश्किल होता जा रहा है क्योंकि शरीर में इन बीमारियों के बैक्टीरिया दवाओं के प्रति प्रतिरोधक हो चुके हैं. दरअसल इंसान कंप्यूटर नहीं है. उसकी अपनी सीमाएं हैं. वो दुनिया भर में मौजूद हर जानकारी को न तो याद रख सकता है, न समझ सकता है ना ही उसका विश्लेषण कर सकता है, लेकिन लार्ज लैंग्वेज मॉडल्स ऐसा कर सकते हैं जिन पर AI को ट्रेन किया जाता है. AI एक साथ दुनिया भर में मौजूद हर उस जानकारी को खंगाल सकता है, उसका विश्लेषण कर सकता है जो उसके दायरे में है या जिसपर उसे ट्रेन किया गया है या प्रशिक्षित किया गया है. सैकड़ों साल में जो अथाह साइंटिफिक लिटरेचर तैयार हुआ है. क्लिनिकल ट्रायल, रिसर्च पेपर छपे हैं या छप रहे हैं वो उन्हें कुछ ही देर में पढ़ सकता है, विश्लेषण कर सकता है. इंसान जो काम सैकड़ों साल में करेगा उसे AI कुछ ही पलों में कर सकता है. यही वजह है कि बीमारियों के इलाज खोजने में वो सबसे कारगर होने जा रहा है. Google का Co Sceintist AI Tool ऐसा ही एक उपकरण है.
- जैसे कैंसर की बात करें तो सबसे पहले तो AI के इस्तेमाल से ये पता लगाया जा सकेगा कि किस मरीज़ को कैंसर होने की संभावना है.
- किसी को कैंसर हो तो जल्द से जल्द उसका पता लगाया जा सकता है.
- कैंसर के किस मरीज़ के लिए कैसा इलाज ठीक रहेगा. ये भी पता लगाया जा सकता है.
- कैंसर के सबटाइप्स में ज़रा भी अंतर को पहचानने में AI मदद कर सकता है जिससे इलाज की सटीक योजना तैयार हो सकती है.
- AI के इस्तेमाल से दवा इस तरह दी जा सकेगी कि साइड इफेक्ट कम से कम हो.
- दवा सिर्फ़ कैंसर की कोशिकाओं को ही मारें, बाकी स्वस्थ कोशिकाओं को नहीं.
- अभी रेडियोथैरेपी या कीमोथैरेपी में ऐसा नहीं होता. उनमें स्वस्थ कोशिकाएं भी दवा की मार से बच नहीं पातीं.
- AI के इस्तेमाल से जटिल बायोलोजिकल डेटा के विश्लेषण से प्रभावी दवाएं जल्द तैयार हो सकती हैं.
- अलग तरह के कैंसर के लिए अलग दवा तैयार की जा सकती है वो भी कम समय और कम लागत में.
- यही खूबियां हैं जिनके चलते उम्मीद है कि AI आने वाले दिनों में कैंसर जैसी ख़तरनाक बीमारी का इलाज खोज लेगा. इलाज भी ऐसा जो हर व्यक्ति की ज़रूरत के मुताबिक होगा.