अलविदा सीताराम येचुरी: लुटियंस दिल्ली के सबसे चर्चित कॉमरेड की पूरी कहानी
लेकिन यही दौर है जब सीपीएम और लेफ्ट फ्रंट अपनी तरह-तरह की मुश्किलें झेलते हुए लगातार कमज़ोर पड़ते चले गए. सीपीएम ने भी पुरानी सख़्त नीति छोड़ गठबंधन की राजनीति का सहारा लिया. हालांकि 1996 में ज्योति बसु को संयुक्त मोर्चे का प्रधानमंत्री न बनने देकर लेफ्ट ने जो फ़ैसला किया, उसे बाद में ज्योति बसु ने ऐतिहासिक भूल बताया. हरकिशन सिंह सुरजीत के नेतृत्व में कभी गैरबीजेपी और कभी गैरकांग्रेसी सरकारों का मोर्चा बनाने में लेफ्ट की अहम भूमिका रही थी.
- 1989 में वीपी सिंह की अल्पमत सरकार को बाहर से बीजेपी और लेफ्ट दोनों ने समर्थन दिया.
- 1996 में संयुक्त मोर्चा गठबंधन के लिए न्यूनतम साझा कार्यक्रम बनाने में येचुरी की अहम भूमिका रही.
- 2004 के आम चुनावों में मनमोहन सिंह की यूपीए सरकार को लेफ्ट ने बाहर से समर्थन दिया.
- दरअसल लेफ़्ट का सबसे अच्छा दौर यही रहा- लेफ़्ट पार्टियों के पास तब 64 सीटें थीं.
- यूपीए सरकार की नीतियों के निर्धारण में लेफ्ट की अहम भूमिका रही.
- लेकिन 2008 में अमेरिका के साथ एटमी करार का विरोध करते हुए लेफ्ट ने समर्थन वापस ले लिया.
- हालांकि कहा जाता है कि येचुरी इस समर्थन वापसी के ख़िलाफ़ रहे.
- तब महासचिव रहे प्रकाश करात का रुख इस मामले में सख़्त था.
लेफ्ट के बुरे दिन यहीं से शुरू हुए. बंगाल में नंदीग्राम और सिंगुर के ख़िलाफ़ चले आंदोलन ने वहां दशकों से चला आ रहा लेफ्ट का किला इस तरह तोड़ दिया कि वह बिल्कुल चूर-चूर हो गया. त्रिपुरा भी लेफ्ट के हाथ से निकल चुका है।
केरल में सीपीएम की सरकार है, लेकिन सवालों से घिरी है. निस्संदेह सीताराम येचुरी जब महासचिव बने तब ये ढलान शुरू हो चुकी थी. वो सीपीएम को इस ढलान से बाहर लाने में कामयाब नहीं रहे. लेकिन इसमें शक नहीं कि वो सभी दलों में सम्मानित नेता रहे. खासे पढ़े-लिखे और लोकतंत्र में गहरा भरोसा करने वाले नेता रहे. उनका जाना सिर्फ़ वाम राजनीति के लिए ही नहीं, भारतीय लोकतंत्र के लिए एक बड़ी क्षति है.
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