अलविदा उस्ताद! चले गए तबले से शायरी सुनाने वाले जाकिर हुसैन
मैं शायर-वायर तो नहीं हूं, लेकिन तबले में जो बजता है, वह भी एक शायरी ही है… एक इंटरव्यू में जाकिर हुसैन (Zakir Hussain) ने यह बात कही थी. और क्या खूब कही थी. तबले पर बिजली सी रफ्तार से दौड़ती उनकी उंगलियों से निकली शायरी के सम्मोहन से शायद ही कोई बचा. तबले पर जब उनकी उंगलियां आराम लेतीं, तो मुंह से बरबस ही निकल पड़ता- वाह उस्ताद. आज यह उस्ताद अलविदा कह गया. लेकिन घुंघराले बालों वाले इस उस्ताद की उंगलियां मानों तबले पर अभी भी कहीं थिरक रही हैं. तबला मानों बज रहा है.
2 दिन का था तो पिता ने कान में दिया तबले का मंत्र
जब पैदा हुआ था, तो मैं पहला लड़का था. परिवार में पहले तीन बहनें थीं. पिता (अल्लाह रक्खा खां) को लगता था कि कोई लड़का पैदा हो तो उसे सिखाया जाए. जब मैं पैदा हुआ तो,तो उनकी तबीयत ठीक नहीं थी. हॉस्पिटल से जब मुझे घर लाया गया और उनके हाथ में दिया गया. तो उन्होंने पहला काम यह किया कि मेरे कान में धा धिन धिन धा गुनगुनाने लगे. दो दिन का बच्चे की तालीम शुरू हो गई थी. बचपने से मेरी तालीम कुछ ऐसी शुरू हो गई थी.
बेंच बजाता तो क्लास से बाहर निकाल देती थीं टीचर
स्कूल में भी तबला बजाने की बड़ी बेचैनी रहती. क्लॉस की बेंचों में बजाता रहता. टीचर परेशान हो जातीं. क्लास से बाहर निकाल दिया जाता. उस दिनों सबसे आम सजा यह होती कि क्लास के बाहर घुटनों पर बैठा दिया जाता. उस दौरान भी हाथ थमते नहीं और बजते रहते. पता नहीं क्या तबले का शौक मन में ऐसा पड़ गया था. दो तीन साल की उम्र से ही टेबलों को बजाता रहता.
पहला परफॉर्मेंसः पिता ने कहा, बजाएगा और मैंने कहा हां
आर्टिस्ट के लिए उसका पहला परफॉर्मेंस बहुत जरूरी होता है. मेरे साथ एक बहुत दिलचस्प वाकया हुआ. जब मैं चार-पांच साल का था, तो पिता के साथ प्रोग्राम में आता जाता था. एक बार जब उम्र 7 साल की रही होगी, तो मेरी आदत थी कि मैं स्टेज पर उनके पीछे बैठा होता था. तो वह अली अकबर खां साहब के साथ बजा रहे थे. पीछे एक तलबा पड़ा होता था. जब वह बजाने लगे तो मैं भी इतना एक्साइटेज हो गया कि मैं भी उसे बजाने लग गया. उन्होंने मुझे पीछे मुड़कर देखा और फिर अली अकबर खां साहब की तरफ देखा. दोनों में कुछ रजामंदी जैसे हुई. उन्होंने- मुझसे पूछा- बजाएगा?.मैंने भी कह दिया- हां बजाऊंगा. तो पिता हट गए और मुझे स्टेज दे दिया. उन्होंने मुझे समझाया कि देखो बेटा तीन ताल हैं- ‘ना धिन धिन्ना ना धिन धिन्ना’ बजाना है. बाकी अपने हिसाब से बजा लेना. मैंने अली अकबर खां साहब के साथ आधे घंटे तक तबला बजाया. जब बड़ा हुआ तो समझ आया कि मैंने कितना दुस्साहस कर दिया था.
मां ने जब मेरी खूब पिटाई की
बचपन में म्यूजिक के लिए बड़ा झूठ बोला.मां चाहती थी कि मैं डॉक्टर बनूं. वह मुझे प्रोग्राम में जाने के लिए मना करती रहती थीं. पिता के लिए प्रोग्राम के लिए लेटर आते थे. वह उपलब्ध नहीं रहते थे, तो मैं वह चिट्ठियां बीच में ही पकड़कर जवाब लिखा कि पिता तो नहीं उपलब्ध हैं, मैं उनका बेटा हूं. मैं आ सकता हूं. तो लोग बुला लेते थे कि उस्ताद अल्ला रखा खां के बेटा है. ठीक बजा लेता होगा. तो बुला लेते थे. पटने और बनारस में 12-13 साल की उम्र कई जगह प्रोग्राम किए. एक बार स्टेशन पर मां ने पकड़ लिया और फिर घर लाकर खूब पिटाई हुई. उसके बाद कभी ऐसा नहीं कर पाया. हां, उन दो तीन सालों में खूब सोलो परफॉर्मेंस दी थी.
गुरु और शिष्य पर जाकिर हुसैन का वह किस्सा
गुरु-शिष्य परंपरा हमारे शास्त्रीय संगीत की एक बड़ी पुरानी सभ्याता है. पुराने और अब के जमाने में गुरुऔर चेले का संबंध बहुत बदल गया है. पहले के जमाने में चेले गुरु पर अपनी जान न्योछावर कर देते थे. एक किस्सा मैं सुनाता हूं. हमारे आचार्य उस्ताद अलाहुद्दीन खान साहब अली जब सीखने की बड़ी इच्छा थी. किसी ने उनसे से कहा रामपुर के नवाब के यहां चले जाओ.वहां उस्ताद वजीर खां साहब हैं, वह आपको सिखाएंगे. वह दिन रात दरवाजे के बाहर खड़े रहते, लेकिन वह नहीं माने. जब बहुत दिन निकल गए, एक बार वजीर खां कहीं जा रहे थे, तो उन्होंने तांगे सामने खुद को गिरा दिया. वजीर खां साहब ने शिष्य बना लिया.
जब गुरु शिष्य बनाता है तालीम देता है तो फिर गुरु दक्षिणा भी मांगता है. तो वजीर खां साहब को लगा कि उस्ताद अल्लाउद्दीन खान बहुत अच्छा बजा रहे हैं तो उनके खानदान में कोई अच्छा बजाने वाला आए तो उसको दिक्कत न हो. तो उन्होंने गुरु दक्षिणा में कहा कि तुम सरोज उल्टे हाथ से बजाओगे. अलाउद्दीन खां साहब ने गुरु की यह यह बात मान ली और फिर 15 साल फिर सरोद उल्टे हाथ से बजाना सीखा.पूरी श्रद्धा के साथ उल्टे हाथ से बजाना सीखा और हिंदुस्तान के इतने बड़े उस्ताद बने.
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