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हदिया के पिता ने अदालत में याचिका दायर करके अपनी बेटी का पता नहीं चलने का दावा किया

हदिया के पिता अशोकन के. एम. ने केरल उच्च न्यायालय में एक याचिका दायर की है.

कोच्चि:

हदिया के परिवार ने केरल उच्च न्यायालय में एक याचिका दायर करके कहा है कि वे पिछले एक महीने से उसका पता नहीं लगा पा रहे हैं. हदिया के इस्लाम में धर्मांतरण और बाद में शफीन जहां नाम के व्यक्ति से शादी के कारण विवाद हुआ था.

हदिया के पिता अशोकन के. एम. ने उच्च न्यायालय में एक याचिका दायर करके कहा है कि उन्हें आशंका है कि उनकी बेटी को उसके पति सहित कुछ लोगों ने अवैध रूप से कैद कर रखा है, जो कथित तौर पर प्रतिबंधित पॉपुलर फ्रंट ऑफ इंडिया का हिस्सा हैं. मामले से जुड़े एक वकील ने कहा कि याचिका पर मंगलवार को सुनवाई हो सकती है.

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अशोकन ने उच्च न्यायालय में दायर याचिका में कहा है कि वह और उनकी पत्नी पिछले एक महीने से हदिया का पता नहीं लगा पा रहे हैं. अशोकन ने दावा किया कि जब भी उन्होंने अपनी बेटी को फोन किया, उसने या तो कॉल नहीं उठायी या कई मौकों पर उसका मोबाइल फोन बंद मिला. अशोकन ने यह भी दावा किया कि वे मलप्पुरम में हाल ही में खुले उसके होमियो क्लीनिक गए, लेकिन वह भी बंद मिला और पड़ोसियों को इसके बारे में कोई जानकारी नहीं है.

अशोकन ने अदालत के सामने यह भी दावा किया कि हदिया ने परिवार को बताया था कि वह अपने पति से अलग हो गई है. वहीं, हदिया ने कुछ दिन पहले एक क्षेत्रीय टेलीविजन चैनल से बात की थी जिसमें उसने दावा किया था कि वह अपने पति से अलग हो गई है. हदिया ने यह भी कहा था कि उसने दूसरे व्यक्ति से शादी कर ली है और यह उसका निजी मामला है. उसने दावा किया था कि वह अपने माता-पिता के साथ नियमित संपर्क में है और इसके बावजूद उसके माता-पिता उसके लिए दिक्कतें उत्पन्न कर रहे हैं.

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हदिया ने कोयंबटूर में मेडिकल की पढ़ाई के दौरान इस्लाम अपना लिया था और 2016 में शफीन जहां से शादी कर ली थी, जब वह 25 साल की थी. अशोकन ने उच्च न्यायालय में एक रिट याचिका दायर की थी, जिसमें कहा गया था कि जबरन धर्म परिवर्तन कराया गया और शफीन जहां के पीएफआई जैसे चरमपंथी संगठनों से संबंध हैं. उन्होंने यह भी दलील दी थी कि हदिया को इस्लामिक स्टेट में शामिल होने के लिए सीरिया ले जाया जाएगा.

तब अदालत ने इस शादी को ‘दिखावा’ बताते हुए रद्द कर दिया था. हालांकि, बाद में शफीन जहां ने उच्चतम न्यायालय का रुख किया था और 2018 में शीर्ष अदालत ने उच्च न्यायालय के आदेश को रद्द कर दिया था.

 

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