मैं रामलीला मैदान हूं… अन्ना, केजरीवाल और अब रेखा, वक्त बदलते मैंने देखा
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नई दिल्ली:
मैं रामलीला मैदान हूं… दिल्ली के हर बदलाव का साक्षी रहा हूं. इस बार भी साक्षी हुआ हूं एक भव्य आयोजन का (एक वापसी का), 27 साल बाद हुई वापसी का. लोग इसे दूसरे वनवास की समाप्ति बता रहे हैं. ऐसे भव्य आयोजनों का मैं पुराना गवाह रहा हूं. मैंने सरकारें बनती-गिरती देखी हैं, राजनीतिक दलों को बनता-बिखरता देखा है. कई सूरज मेरे सामने उगे और डूब गए. अब एक नया सूरज निकला है, तो एक बार फिर देश और दुनिया के बड़े लोग जुटे. प्रधानमंत्री-गृह मंत्री सहित सारे बड़े नेता, बड़े-बड़े उद्योगपति, दूसरे देशों के राजनयिक और साक्षी बने हज़ारों आम लोग.
लेकिन यह पहली बार नहीं है, जब मैंने किसी सरकार के शपथ ग्रहण समारोह का कार्यक्रम देखा है. जैसा मैंने कहा, सरकारें मेरे सामने बनती-गिरती रही हैं. मेरे सामने आम लोग महानायक बन गए. मुझे कई पुरानी तारीख़ें याद हैं. एक तारीख़ थी 20 अगस्त 2011 की. तब एक शख़्स का चेहरा एक नए भारत के सपने में बदल गया था. रालेगण सिद्धि से चले अन्ना हजारे भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के प्रतीक बन गए थे और उनके पीछे सामाजिक बदलाव की कामना रखने वाले हजारों नौजवान थे.
अन्ना का आंदोलन
अन्ना दिल्ली के जंतर मंतर पर आंदोलन करके तब तक मशहूर हो चुके थे. उनकी भूख हड़ताल से सरकार का सिंहासन कांपता लग रहा था. अरविंद केजरीवाल और मनीष सिसोदिया जैसे युवा लोग इसी आंदोलन से निकले. तब लगता था कि नौजवानों का ये नया जत्था भारतीय समाज को बदलने आया है. वह एक भ्रष्टाचार मुक्त भारत बनाने का सपना लेकर आया है. रामलीला मैदान पहुंचने से पहले सरकार ने अन्ना को गिरफ्तार करने की कोशिश की, उन्हें तिहाड़ ले जाया गया. लेकिन जन प्रतिरोध इतना तीखा रहा कि सरकार ने आनन-फानन में उन्हें छोड़ा. वो फिर मेरे पास थे- यानी रामलीला मैदान में, फिर से हवा में समाज को बदलने का जज़्बा था, फिर से सादगी और सच्चाई की लड़ाई चल पड़ी थी. मुझे अन्ना हजारे के उन दिनों के कई भाषण याद हैं.
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अन्ना के आंदोलन ने देश भर में कई जंतर-मंतर बना दिए, कई रामलीला मैदान बना दिए. तब तक अन्ना के साथ कई तरह की वैचारिकी से जुड़े लोग आ चुके थे. कानूनी गलियारों से न्याय और संविधान की लड़ाई लड़ने वाले प्रशांत भूषण, समाजवादी धारा से निकले, किशन पटनायक के समूह से आए योगेंद्र यादव, अपनी ईमानदारी और सख़्ती के लिए मशहूर किरण बेदी उन चेहरों में थे, जो अन्ना के आंदोलन को धार और भरोसा दे रहे थे. इस मायने में एक दिशा भी कि तब तक यह साफ नहीं था कि जन लोकपाल बिल के अलावा यह आंदोलन चाहता क्या है. लेकिन इसी दौर में इतिहास की शक्तियां कुछ और खेल खेल रही थीं. अन्ना आंदोलन से जु़ड़े एक समूह को लगता था कि भारतीय लोकतंत्र में बिना राजनीति में आए कोई बदलाव संभव नहीं है, तो ये विचार-विमर्श चलता रहा- मतभेद और टकराव तक हुए. इनकी भी दिलचस्प कहानी है.
आम आदमी पार्टी का जन्म…
- साल 2012 में फेसबुक पर एक सर्वे कराया गया. सवाल था, अन्ना आंदोलन से जुड़े साथियों को राजनीति में आना चाहिए या नहीं?
- ये सर्वे अरविंद केजरीवाल से जुड़े इंडिया अगेंस्ट करप्शन ने कराया था. ज़्यादातर लोगों ने राजनीति में आने का समर्थन किया.
- अन्ना हजारे ने सर्वे को नकार दिया. उनकी दलील थी- चुनाव के लिए बड़ा पैसा चाहिए, जो सबको भ्रष्ट बनाएगा.
- 16 सितंबर, 2012 को अन्ना और केजरीवाल ने माना कि दोनों में राजनीति में आने को लेकर मतभेद हैं.
- 2 अक्टूबर को केजरीवाल ने स्वतंत्र राजनीतिक दल बनाने की घोषणा की.
- 12 नवंबर 2012 को आम आदमी पार्टी का गठन हुआ.
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उन दिनों केजरीवाल के तेवर अलग से हुआ करते थे. उन्होंने कई बड़े नेताओं पर संगीन आरोप लगाए. लेकिन तब तो लगता था कि टीम केजरीवाल भारत के भ्रष्ट नेताओं को जेल में डाल कर और भ्रष्टाचार को दूर करके मानेगी. मैंने देखा है आम आदमी पार्टी का उभार. मैंने देखी है अन्ना आंदोलन के दौरान यहां उमड़ी भीड़, मैंने देखा है- किस तरह केजरीवाल और सिसोदिया उन दिनों गपशप में मानते थे कि उन्हें बड़े आंदोलनों को चलाना अभी सीखना है. लेकिन राजनीतिक दल बनते ही उनका अंदाज़ उनके तेवर बदले और उनकी क़िस्मत भी बदली.
28 दिसंबर, 2013… जब बनी आम आदमी पार्टी की सरकार
एक और तारीख़ मुझे याद आती है 28 दिसंबर, 2013 की. इसी दिन महज साल भर पुरानी पार्टी ने अपनी सरकार बनाई. मैं तब भी शपथ ग्रहण समारोह का साक्षी बना था. दिल्ली का सबसे युवा मुख्यमंत्री शपथ ले रहा था. और तब केजरीवाल ने कहा था, लोग न रिश्वत लें और न रिश्वत दें. लेकिन उस पहली सरकार के साथ ही समझौतों की शुरुआत हो चुकी थी. तब 70 सदस्यों वाली दिल्ली विधानसभा में बीजेपी 31 सीटों सहित सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी थी. आप को बस 28 सीटें मिली थीं- बहुमत से 8 सीट दूर. कांग्रेस का लगभग सफ़ाया हो गया था, वह 43 से घट कर 8 सीटों पर चली आई थी. आम आदमी पार्टी ने जिस कांग्रेस की जम कर आलोचना की, उसी के समर्थन से सरकार बना ली.
लेकिन केजरीवाल की यह सरकार बस 49 दिन चल सकी. जन लोकपाल बिल न ला पाने में अपनी नाकामी के नाम पर केजरीवाल ने इस्तीफ़ा दे दिया. दरअसल यह आम आदमी पार्टी के नए उभार के लिए उठाया गया एक सटीक कदम साबित हुआ. 2015 में केजरीवाल अपने दम पर तीन-चौथाई से ज़्यादा सीटें जीतकर सत्ता में लौटे. एक बार फिर मैं उनकी ताजपोशी का गवाह बना. वो तारीख़ थी 14 फरवरी 2015 की. केजरीवाल फिर शपथ ले रहे थे- मैं अरविंद केजरीवाल… और फिर वो भ्रष्टाचार से लड़ने की बात कर रहे थे.
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आम आदमी पाटर्री में मतभेद…
लेकिन ये बदली हुई पार्टी बदले हुए केजरीवाल थे. दिल्ली में 67 सीटें जीत कर पार्टी रिकॉर्ड बना चुकी थी. महज दो साल पुरानी पार्टी के लिए ये बड़ी कामयाबी थी. लेकिन यहीं से मतभेद बढ़ने लगे… महीने भर के भीतर योगेंद्र यादव और प्रशांत भूषण जैसे वरिष्ठ नेता पार्टी से निकाल दिए गए. उन पर पार्टी विरोधी गतिविधियों का आरोप लगाया गया.
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ये दौर फिर भी राजनीतिक तौर पर आप का सबसे सुनहरा दौर रहा. केंद्र और उपराज्यपाल से लड़ते-झगड़ते, तमाम तरह के सही-गलत फैसले करते केजरीवाल की पार्टी बड़ी होती रही. इसी दौर में आप ने पंजाब भी जीत लिया. जिस पार्टी के एक दशक भी पूरे नहीं हुए थे, वो दो-दो राज्यों में सरकार बना चुकी थी और दूसरे राज्यों में हाथ-पांव मार रही थी. 2020 में आम आदमी पार्टी ने दिल्ली में 2015 का नतीजा लगभग दुहरा दिया. लेकिन 2020 के बाद पार्टी लगातार आरोपों से घिरती चली गई, भ्रष्टाचार के आरोपों में उसके नेता जेल जाते रहे, केजरीवाल और सिसोदिया तक सलाखों के पीछे नज़र आए और आखिरकार 2025 के विधानसभा चुनावों में आम आदमी पार्टी बुरी तरह हार गई.
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दिल्ली में बीजेपी की वापसी…
दरअसल, इस हार के पीछे बीजेपी की रणनीति भी रही. बीजेपी ने आप के ही तौर-तरीकों को पहचाना. जिस भ्रष्टाचार को केजरीवाल मुद्दा बना रहे थे, उसी को हथियार बनाकर उन पर पलटवार किया. फिर केजरीवाल की व्यक्तिवादी राजनीति का जवाब प्रधानमंत्री मोदी के करिश्मे से दिया. केजरीवाल की रेवड़ी राजनीति के जवाब में उनसे ज़्यादा बड़े एलान किए और इसे प्रधानमंत्री की गारंटी से जोड़ा. जिन झुग्गी-बस्तियों के भरोसे केजरीवाल की राजनीति चलती थी, वहां भी बीजेपी नेता पहुंचे और उनको बदलाव का भरोसा दिलाया. प्रचार की मनोवैज्ञानिक राजनीति में भी बीजेपी आगे रही. बिल्कुल बूथ स्तर से लेकर सर्वोच्च स्तर तक की गई इस घेराबंदी ने दिल्ली में आप का किला तोड़ दिया. बीजेपी 48 सीटों के साथ अपने बूते बहुमत ले आई है. इस जीत का स्वाद उसके लिए बहुत गाढ़ा है, क्योंकि बहुत गाढ़े संघर्ष से ये जीत मिली है.
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ऐतिहासिक पलों का साक्षी रामलीला मैदान
- अब मैं एक नई सरकार का राजतिलक देख रहा हूं, याद करता हुआ कि आज़ाद भारत के इतिहास की न जाने कितनी धड़कनें मेरे सीने से निकली हैं.
- ये 1961 का साल था- क्वीन एलिजाबेथ भारत आई थीं और नेहरू ने यहीं उनका स्वागत किया था. तब डॉ. राम मनोहर लोहिया ने उनकी बड़ी सख़्त आलोचना की थी. कहा था कि एक राजकुमार एक रानी के स्वागत में लगा है.
- 1962 में चीन युद्ध से हासिल मायूसी के बाद लता मंगेशकर ने मेरे ही सामने गाया था, वह तराना जिसे सुनते हुए जवाहलाल नेहरू की आंख नम हो गई थी- ऐ मेरे वतन के लोगों..
- और 1965 में मेरे सामने ही लाल बहादुर शास्त्री ने दिया- जय जवान जय किसान का नारा. मैं था और सुन रहा था अपनी सादगी के लिए प्रसिद्ध उस महापुरुष की भावुक वाणी.
- मेरे ही सामने जून 1975 में लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने इंदिरा गांधी को ललकारा था. उन्होंने कहा था- वो इस्तीफ़ा दें. इसके पहले वो साल भर से संपूर्ण क्रांति की भूमिका बना रहे थे.
- जून 1975 में ही लगी वो इमरजेंसी, जिसके कई ज़ख़्म मेरे सीने पर भी बने. मेरे ही पास ऐतिहासिक तुर्कमान गेट को ढहाया गया और मैं देखता ही रहा.
- लेकिन 19 महीने लंबी चली उस रात के बाद लोकतंत्र का निकलता सूरज भी मेरे सामने से गुज़रा. यहीं हुई थी वो बैठक जिसमें कई विपक्षी दलों को मिलाकर जनता पार्टी का गठन किया गया था. 1977 के चुनावों से पहले यहीं बनी थी दूसरी आज़ादी की सूरत.
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ये आज़ादी कैसे बिखर गई- इसका उदास करने वाला अफ़साना अब सब जानते हैं. जब अन्ना का आंदोलन चला, तब भी सबने जयप्रकाश नारायण को याद किया, संपूर्ण क्रांति को याद किया और तीसरी आज़ादी की बात की. लेकिन मैं जानता हूं. कोई भी आज़ादी जड़ता से कायम नहीं रहती. उसके लिए लगातार सक्रिय रहना पड़ता है, लड़ते रहना पड़ता है. मेरे सामने राजनीति के नए सूरज निकले और डूब गए. मेरे सामने दूसरी और तीसरी आज़ादी के नारे लगे और इतिहास के अंधेरे में खो गए. मेरे सामने लोकतंत्र को ख़तरे में डालने की कोशिश हुई और उसके ख़िलाफ़ लड़ाई का भी गवाह मैं रहा. मेरे सामने नेता सूरज की तरह उभरे और सितारों की तरह डूब गए. मेरे सामने राजनीतिक दल बने और बिखर गए. ये ऐसी कहानी है, जो कई कहानियों से बनी है. इसमें मायूसियां भी हैं और उम्मीदें भी, इनमें भरोसा है और भरोसे के टूटने की त्रासदी भी. इसमें लम्हों की खताएं हैं और बरसों की सज़ाएं भी. अब एक नई सरकार आ गई है, तो मैं पुरानी चुनौतियों की याद दिला रहा हूं- बता रहा हूं कि अपने लोकतंत्र को बचाए रखने के लिए ज़रूरी है कि हम अपनी सरकारों पर नज़र रखें. राम मनोहर लोहिया ने कहा था- जब सड़कें सूनी होती हैं, तो संसद आवारा हो जाती है. सड़कें सूनी न हों, रामलीला मैदान का रंग बना रहे, देश के लोकतंत्र की ताकत जनता तौलती रहे- ये ज़रूरी है.