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पड़ताल: क्यों 'हिमालय' से दर्द में है देश का वेस्टर्न घाट?

केरल (Kerala) के वायनाड (Wayanad) जिले में भूस्खलन (Landsliding) से भारी तबाही हुई है. इस त्रासदी में अब तक करीब 150 लोगों की मौत होने की सूचना है. बड़ी संख्या में लोग लापता हैं, जिनकी तलाश जारी है. केरल में जहां हर साल भारी बारिश हो रही है वहीं भूस्खलन जैसी प्राकृतिक विभीषिकाएं भी बढ़ गई हैं. केरल उन छह राज्यों में शामिल है जहां पर्यावरण की दृष्टि से महत्वपूर्ण और संवेदनशील पश्चिमी घाट (Western Ghats) फैला हुआ है. यह हिमालय के बाद देश का सबसे अधिक पारिस्थिकीय संवेदनशील इलाका है. पश्चिमी घाट को इको सेंसिटिव एरिया (Eco sensitive area) घोषित करने के लिए केंद्र सरकार ने कई ड्राफ्ट नोटिफिकेशन जारी किए लेकिन राज्यों के सहमत न होने के कारण इस पर अंतिम फैसला नहीं हो सका. इसी के नतीजे पर्यावरण की क्षति और प्राकृतिक त्रासदियों के रूप में सामने आ रहे हैं.    

पश्चिमी घाट या वेस्टर्न घाट है क्या?

केरल के वायनाड में पारिस्थितिकीय रूप से कमजोर क्षेत्र में भूस्खलन हुआ. इससे पश्चिमी घाट को पारिस्थितिकीय रूप से संवेदनशील क्षेत्र के रूप में अधिसूचित करने में सरकारों की विफलता फिर सामने आ गई है. पश्चिमी घाट छह राज्यों गुजरात, महाराष्ट्र, गोवा, कर्नाटक, तमिलनाडु और केरल में फैला है. इस 1500 किलोमीटर लंबे पश्चिमी घाट के इलाके में पश्चिमी तट पर संरक्षित क्षेत्र और विश्व धरोहर स्थल भी हैं. देश में पश्चिमी घाट हिमालय के बाद सबसे अधिक भूस्खलन संवेदी क्षेत्र है.

पश्चिमी घाट को इकोलॉजिकल सेंसिटिव एरिया के तहत नोटिफाई नहीं किए जाने का परिणाम है कि इस पूरे इलाके में पर्यावरण को हानि पहुंचाने वाली गतिविधियां निर्बाध जारी हैं. कई सालों से लगातार खनन, वनों का विनाश और निर्माण का सिलसिला जारी है. वनों की कटाई और खनन जैसी गतिविधियों का नतीजा यह है कि मिट्टी की जमीन में पकड़ ढीली हो रही है, मिट्टी पहाड़ों पर टिकी नहीं रह पा रही. भारी बारिश होने पर भूस्खलन होने का यह प्रमुख कारण है. केरल के वायनाड जिले में भूस्खलन की त्रासदी पर्यावरण की अनदेखी का ही नतीजा है.          

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वनों का विनाश रोकना जरूरी

पश्चिमी घाट का प्रस्तावित इकोलॉजिकल सेंसिटिव एरिया  56,825 वर्ग किलोमीटर में फैला है. इस इलाके में प्रदूषण बढ़ाने वाली गतिविधियों को रोकने और वनों की कटाई बंद करने की जरूरत है. पश्चिमी घाट में कर्नाटक का 20,668 वर्ग किलोमीटर, महाराष्ट्र का 17,340, केरल का 9,993, तमिलनाडु का  6,914, गोवा का 1,461 और गुजरात का 449 वर्ग किलोमीटर इलाका है.      

इकोलॉजिकल सेंसिटिव एरिया (ESA) घोषित करने के लिए पांच बार मसौदा तैयार किया गया लेकिन अब तक इस पर अंतिम फैसला नहीं लिया जा सका. पहला मसौदा 2014 में आया था. इसके बाद 2015, 2017, 2018 और 2022 में मसौदे तैयार किए गए. अब छठा ड्राप्ट नोटिफिकेशन इसी सप्ताह में आने की संभावना है. 

फायदे के लिए पर्यावरण को अनदेखा कर रहे राज्य

सन 2014 से केंद्र ने पांच ड्राफ्ट नोटिफिकेशन जारी किए लेकिन राज्य शुरू से ही ईएसएस के लिए तैयार नहीं हो रहे हैं. पश्चिमी घाट को इको सेंसटिव एरिया के रूप में नोटिफाई करने के लिए पहले केरल और अब मुख्य रूप से कर्नाटक रोड़े लगा रहा है. वह अभी भी फाइनल नोटिफिकेशन के लिए तैयार नहीं है. इससे पारिस्थितिक रूप से संवेदनशील क्षेत्र खतरनाक होता जा रहा है.

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ईएसए के लिए अंतिम नोटिफिकेशन के अस्तित्व में आने और उसके लागू होने पर माइनिंग और अधिक प्रदूषण फैलाने वाले उद्योगों पर पूरी तरह पाबंदी लग जाएगी. नए थर्मल पॉवर प्रोजेक्ट, मौजूदा पॉवर प्रजेक्टों के विस्तार और 20 हजार वर्गमीटर और उससे अधिक बड़े इलाके में परियोजनाओं के निर्माण पर पूरी तरह पाबंदी होगी. राज्य इसके लिए तैयार नहीं हैं क्योंकि इससे प्राकृतिक संसाधनों के बेतहाशा दोहन पर रोक लग जाएगी. पर्यावरण से समझौता करके चलाई जाने वालीं व्यापारिक गतिविधियों, उद्योगों के विस्तार, शहरीकरण आदि पर अंकुश लग जाएगा.    

करीब 90 हजार वर्ग किलोमीटर क्षेत्र भूस्खलन संवेदी

केरल में सन 2018 में भी भूस्खलन की घटनाएं हुई थीं. इससे पहले सन 2014 में महाराष्ट्र में भी भूस्खलन की घटना हुई थी. भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (ISRO) ने पिछले साल नेशनल रिमोट सेंसिंग सेंटर द्वारा एकत्रित की गई जानकारी के आधार पर एक रिपोर्ट जारी की थी. इसके मुताबिक देश के 30 सबसे अधिक भूस्खलन संवेदी जिलों में से 10 जिले केरल में हैं. रिपोर्ट के अनुसार पश्चिमी घाट की कोंकण पर्वत श्रृंखला, जो कि तमिलनाडु, केरल, कर्नाटक, गोवा और महाराष्ट्र के इलाकों में फैली है, का करीब 90 हजार वर्ग किलोमीटर क्षेत्र भूस्खलन संवेदी है.

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गाडगिल समिति ने कई साल पहले चेताया था

केरल में लैंडस्लाइडिंग की त्रासदी के बाद माधव गाडगिल समिति की रिपोर्ट पर भी फिर से चर्चा होने लगी है. कहा जा रहा है कि यदि राज्य सरकारों ने गाडगिल समिति की रिपोर्ट में शामिल सिफारिशों को माना होता तो इस प्राकृतिक त्रासदी से बचा जा सकता था. गाडगिल समिति या पारिस्थितिकी विशेषज्ञ पैनल (WGEEP) केंद्र सरकार ने सन 2010 में गठित की थी. इकोलॉजिस्ट माधव गाडगिल इस समिति के अध्यक्ष थे. इस समिति ने अपनी रिपोर्ट में पश्चिमी घाट को बहुत संवेदनशील बताया था और इस इलाके में भीषण त्रासदियों की आशंका को लेकर चेताया भी था.

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गाडगिल समिति ने पश्चिमी घाट के संवेदनशील क्षेत्रों में माइनिंग रोकने की सिफारिश की थी. समिति ने कहा था कि इलाके में पांच साल में माइनिंग पूरी तरह खत्म कर दी जानी चाहिए और आठ साल में सभी रासायनिक कीटनाशकों का उपयोग बंद किया जाना चाहिए. समिति ने तीन साल में क्षेत्र से प्लास्टिक की थैलियों का उपयोग भी बंद करने की सिफारिश की थी. गाडगिल समिति की रिपोर्ट में कहा गया था कि पश्चिमी घाट में, खास तौर पर केरल में जनसंख्या घनत्व बहुत अधिक है. इस आबादी के लिए खतरा है. 

भारी बारिश के पीछे जलवायु परिवर्तन

तीन साल पहले के एक अध्ययन में बताया गया था कि केरल में सभी भूस्खलन क्षेत्र पश्चिमी घाट इलाके में हैं. राज्य के इडुक्की, एर्नाकुलम, कोट्टायम, वायनाड, कोझीकोड और मलप्पुरम जिले भूस्खलन संवेदी हैं. वायनाड में वनों की कटाई को लेकर सन 2022 में एक स्टडी की गई थी. इसमें कहा गया है कि सन 1950 से सन 2018 के बीच वायनाड जिले का 62 प्रतिशत वन क्षेत्र समाप्त हो गया. 

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केरल में बारिश अधिक होने और भूस्खलन की घटानाएं होने के पीछे जलवायु परिवर्तन भी एक बड़ा कारण माना जा रहा है. जलवायु विज्ञानियों के मुताबिक अरब सागर में तापमान बढ़ने से बादल घने बन रहे हैं. एक शोध के नतीजों में सामने आया है कि दक्षिण-पूर्व अरब सागर का तापमान बढ़ने से केरल सहित इस क्षेत्र के ऊपर का वायुमंडल थर्मोडायनामिक रूप से अस्थिर हो रहा है.इससे केरल में कम अवधि में भारी बारिश हो रही है. इससे भूस्खलन के खतरे भी बढ़ रहे हैं. केरल में इस मॉनसून में करीब वैसे ही घने बादल देखने को मिल रहे हैं जैसे सन 2019 में देखे गए थे. तब केरल में भीषण बाढ़ आई थी.

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