'एक देश, एक चुनाव' को पार्टी से आगे जाकर देखना होगा
जो लोग नौकरशाहों से लगातार बात करते हैं, उन्हें यकीन होगा कि कैसे चुनाव के डर से सब कुछ थम जाता है. सब कुछ सिर्फ़ चुनाव के वक्त नहीं ठहरता, उसके कई महीने पहले और बाद तक सब कुछ रुक जाता है. नीति हो, नौकरी या फिर ठेका, सब पर ब्रेक एक चुनाव लगा सकता है. नौकरियों के विज्ञापन सरकार इसलिए नहीं निकालती, क्योंकि चुनाव आ रहे हैं. या फिर इसलिए किसी बड़े बदलाव से डरती है कि पता नहीं, जनता कैसे लेगी इस बदलाव को.
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गुजरात का एक दिलचस्प किस्सा है. राज्य सरकार ने ट्रैफिक के लिए CCTV लगवाए. सड़क पर फैले भ्रष्टाचार को रोकने की भी योजना थी. जुर्माने के काग़ज़ सीधे घर जाने थे. कई जानें बचाने की यह अच्छी योजना थी. लेकिन इसके पहले कि कामकाज शुरू हो पाता, चुनाव आ गए. अफसर और नीति बनाने वाले डरने लगे. कहीं विपक्षी दल इसे मुद्दा न बना दें. चुनावों की आहट ने एक बड़े बदलाव को रोक दिया.
कमेटी के सुझाव कई मायनों में बड़े बदलाव वाले हैं. जो बहस शुरू हुई है, उसमें कई के उत्तर सिफ़ारिशों में मिल रहे हैं और कई के शायद बहस के बाद मिल जाएं. सबसे बड़ी बहस तो यही है कि अगर लोकसभा चुनाव में किसी को बहुमत नहीं मिलता, तो क्या होगा…? कोविंद कमेटी कह रही है कि ऐसे हालात में फिर से चुनाव होंगे, लेकिन बची हुई अवधि के लिए ही करवाए जाएंगे. ऐसी ही व्यवस्था वह राज्यों की विधानसभाओं के लिए भी दे रहे हैं. बड़ा सवाल है कि 5 साल से कम के कार्यकाल में क्या वही बोझ फिर से नहीं पड़ जाएगा, जिससे बचने के लिए एक साथ चुनाव की बात हो रही है.
कोविंद कमेटी के सुझावों में दो बड़े संवैधानिक बदलावों की बात है. एक बदलाव चुनावों को बेहद आसान करने के लिए ज़रूरी है. एक बड़ा बदलाव तो राज्यों की ताकत को लेकर है, जिसमें स्थानीय निकायों के चुनावों को लेकर अधिकार देश की संसद के पास पहुंच जाएंगे. लेकिन पहली नज़र में यह लगता है कि इसका मकसद चुनावों को एक साथ करने के लिए व्यवस्था बनाना ज़्यादा है. अगर आने वाले वक्त में चुनाव एक साथ होने हैं, तो एक बड़ा बदलाव मतदाता सूची को लेकर भी करना होगा. एक सूची से ही सब काम किए जाएंगे, जिसका फ़ायदा आने वाले दिनों में पूरे देश को होगा.
इन सिफ़ारिशों को अभी कई बहसों और कानून की कसौटियों से गुज़रना है, लेकिन बहस किस दिशा में हो, उसका एक खाका देश को मिल गया है. पहली नज़र में ऐसा लगता है कि जिन राज्यों में स्थायित्व की कमी है, उन पर हो सकता है एक भार और पड़े. हो सकता है, उन्हें संसद के साथ चुनाव के लिए एक और चुनाव से गुज़रना पड़े.
जानकारों का एक दूसरा पक्ष भी है. ये वे लोग हैं, जो मानते हैं कि राज्यों के चुनाव और कई परतों में होने वाले चुनाव नेताओं को निरंकुश नहीं होने देते. देश में चुनाव होते रहने से सरकारें और पार्टियां खुद की नीतियों और कामकाज में बदलाव करती रहती हैं. इन जानकारों की राय में चुनाव संतुलन करते हैं. इसके उलट एक राय यह भी है कि लोकलुभावन और चुनाव का डर देश को कड़े और सही फैसलों को लेने से रोकता है. चुनाव की लागत क्या है, इसे नापने का पैमाना सिर्फ खर्च नहीं हो सकता.
बहस छिड़ चुकी है कि वक्त आ गया है, जब चुनाव का रूप बदला जाए. एक जीवित लोकतंत्र में चुनावों का रूप भारत ने बदलकर दिखाया है. EVM का इस्तेमाल हो या मतदाताओं तक चुनाव को ले जाना हो, बदलाव हर वक्त हो रहे हैं. ‘एक देश, एक चुनाव’ को किसी पार्टी विशेष की पहल से आगे जाकर देखना होगा.
अभिषेक शर्मा The Hindkeshariइंडिया के मुंबई के संपादक रहे हैं… वह आपातकाल के बाद की राजनीतिक लामबंदी पर लगातार लेखन करते रहे हैं…
डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं.