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मुस्लिम तलाकशुदा महिला गुजारा भत्ते की हकदार है या नहीं? SC ने सुरक्षित रखा फैसला

दरअसल, अपनी तलाकशुदा पत्नी को अंतरिम गुजारा भत्ता देने के कोर्ट निर्देश को चुनौती देते हुए एक मुस्लिम व्यक्ति ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया है. 9 फरवरी को पहली सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट इस कानूनी सवाल पर विचार करने के लिए तैयार हो गया है कि क्या एक मुस्लिम महिला CrPC की धारा 125 के तहत याचिका बरकरार रखने की हकदार है? 

जस्टिस बीवी नागरत्ना और जस्टिस ऑगस्टीन जॉर्ज मसीह की बेंच ने फैमिली कोर्ट के आदेश को चुनौती देने वाले मामले की सुनवाई की. इसमें एक मुस्लिम महिला ने CrPC की धारा 125 के तहत याचिका दाखिल कर अपने पति से गुजारा भत्ते की मांग की. फैमिली कोर्ट ने आदेश दिया कि पति 20,000 रुपये प्रति माह अंतरिम गुजारा भत्ता दे. फैमिली कोर्ट के इस आदेश को तेलंगाना हाईकोर्ट में चुनौती दी गई. याचिका में कहा गया कि पक्षकारों ने 2017 में मुस्लिम पर्सनल लॉ के अनुसार तलाक ले लिया था. इस का तलाक सर्टिफिकेट भी है, लेकिन फैमिली कोर्ट ने उस पर विचार नहीं किया.

हालांकि, हाईकोर्ट ने अंतरिम भरण-पोषण के निर्देश को रद्द नहीं किया. इसमें शामिल तथ्यों और कानून के कई सवालों को ध्यान में रखते हुए, याचिका की तारीख से भुगतान की जाने वाली राशि को 20,000 रुपये से घटाकर 10,000 रुपये प्रति माह कर दिया गया. अदालत ने महिला को बकाया राशि का 50 प्रतिशत 24 जनवरी, 2024 तक और शेष 13 मार्च, 2024 तक भुगतान करने का आदेश दिया गया था. इसके अलावा, फैमिली कोर्ट को 6 महीने के भीतर मुख्य मामले का निपटारा करने का प्रयास करने के लिए कहा गया था.

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याचिकाकर्ता पति ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया और दलील दी कि एक तलाकशुदा मुस्लिम महिला CrPC की धारा 125 के तहत याचिका दायर करने की हकदार नहीं है. उसे मुस्लिम महिला (तलाक पर अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम, 1986 अधिनियम के प्रावधानों के तहत आगे बढ़ना होगा. जहां तक ​​भरण-पोषण में राहत की बात है तो 1986 का कानून मुस्लिम महिलाओं के लिए अधिक फायदेमंद है.

इन तथ्यों के आधार पर याचिकाकर्ता का दावा है कि उसने अपनी तलाकशुदा पत्नी को इद्दत यानी तलाक के बाद एकांतवास की तय अवधि यानी 90 से 130 दिन के दौरान भरण-पोषण के रूप में 15,000 रुपये का भुगतान किया था. उसने CrPC की धारा 125 के तहत फैमिली कोर्ट में जाने की अपनी तलाकशुदा पत्नी की कार्रवाई को भी इस आधार पर चुनौती दी कि दोनों ने मुस्लिम महिला विवाह विच्छेद पर अधिकार अधिनियम 1986 की धारा पांच के मुकाबले CrPC प्रावधानों को प्राथमिकता देते हुए कोई हलफनामा पेश नहीं किया था.

 

ये दलीलें सुनने के बाद सुप्रीम कोर्ट ने वरिष्ठ वकील गौरव अग्रवाल को अमिक्स क्यूरी यानी अदालत की मदद के लिए न्याय मित्र नियुक्त किया. 

ये मुद्दा 1985 में सुप्रीम कोर्ट में शाह बानो बेगम मामले से जुड़ा है. तब सुप्रीम कोर्ट ने मोहम्मद अहमद खान बनाम शाह बानो बेगम मामले में ऐतिहासिक फैसला सुनाया था. सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने उस समय  फैसले में कहा था कि CrPC की धारा 125 धर्मनिरपेक्ष प्रावधान है. ये मुस्लिम महिलाओं पर भी लागू होता है.

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हालांकि, इस फैसले को समाज के कुछ वर्गों ने अच्छी तरह से स्वीकार नहीं किया और इसे धार्मिक, व्यक्तिगत कानूनों पर हमले के रूप में देखा गया. इस हंगामे के चलते मुस्लिम महिला अधिनियम, 1986  के माध्यम से फैसले को रद्द करने का प्रयास किया गया जिसने तलाक के बाद मुस्लिम महिलाओं के भरण-पोषण के अधिकार को 90 दिनों तक सीमित कर दिया. 

इस अधिनियम की संवैधानिक वैधता को 2001 में डेनियल लतीफी मामले में शीर्ष न्यायालय के समक्ष चुनौती दी गई. न्यायालय ने विशेष कानून की वैधता को बरकरार रखा. हालांकि, यह स्पष्ट किया गया कि 1986 अधिनियम के तहत तलाकशुदा पत्नी का भरण-पोषण करने का मुस्लिम पति का दायित्व इद्दत अवधि तक ही सीमित नहीं है.

कुछ साल बाद, इकबाल बानो बनाम यूपी राज्य मामले में सुप्रीम कोर्ट का मानना ​​था कि कोई भी मुस्लिम महिला CrPc की धारा 125 के तहत याचिका को सुनवाई योग्य नहीं रख सकती है. शबाना बानो बनाम इमरान खान मामले में, सुप्रीम कोर्ट की एक अन्य पीठ ने कहा कि भले ही एक मुस्लिम महिला का तलाक हो गया हो, वह इद्दत अवधि की समाप्ति के बाद CrPC की धारा 125 के तहत अपने पति से भरण-पोषण का दावा करने की हकदार होगी  जब तक कि वो पुनर्विवाह नहीं करती 

इसके बाद, शमीमा फारूकी बनाम शाहिद खान (2015) में, सुप्रीम कोर्ट ने फैमिली कोर्ट के आदेश को बहाल कर दिया, जिसमें एक तलाकशुदा मुस्लिम महिला को भरण-पोषण के लिए CrPC की धारा 125 याचिका को बनाए रखने का हकदार माना गया था.

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