शेख, फारूक, उमर : नेहरू से वो यारी पुरानी, कश्मीर में अब्दुल्ला कुनबे की पढ़िए पूरी कहानी
Jammu Kashmir Elections 2024: धरती का स्वर्ग और निसर्ग की नेमत जम्मू कश्मीर देश का ऐसा राज्य है जो प्राकृतिक सौंदर्य से ओतप्रोत होने के बावजूद अशांति की पीड़ा को भी झेलता रहा है. सन 1931 के जुलाई माह में भी अशांति का एक ऐसा दौर आया जिसने एक 26 साल के युवक को राजनीति के मैदान में कूदने पर मजबूर कर दिया. वह युवक थे शेख अब्दुल्ला. तब कश्मीर में पुलिस की गोलीबारी में 21 लोगों की मौत हो गई थी. इसके विरोध में प्रदर्शन किए गए थे और शेख अब्दुल्ला को गिरफ्तार कर लिया गया था. शेख अब्दुल्ला ने रिहा होने के बाद अक्टूबर 1932 में राजनीतिक पार्टी ऑल जम्मू एंड कश्मीर मुस्लिम कॉन्फ्रेंस का गठन किया. इस पार्टी का नाम बाद में नेशनल कॉन्फ्रेंस हुआ और शेख अब्दुल्ला जम्मू कश्मीर की राजनीति के केंद्र में आ गए. उन्हें शेर-ए-कश्मीर कहा गया.
पहले स्कूल शिक्षक थे शेख अब्दुल्ला
कश्मीर में श्रीनगर से सटे सौर गांव में 5 दिसंबर 1905 को जन्मे शेख अब्दुल्ला सन 1928 में पंजाब यूनिवर्सिटी से ग्रेजुएट हुए थे. इसके बाद उन्होंने सन 1930 में अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी से फिजिक्स में एमएससी की डिग्री ली थी. बाद में वे स्कूल शिक्षक बने लेकिन ब्रिटिश उपनिवेशवाद के विरोध में उन्होंने जल्द ही नौकरी छोड़ दी. उन्हें उनकी कश्मीरी मुस्लिमों की भलाई की मंशा ने राजनीति में पदार्पण करने के लिए प्रेरित किया. शेख अब्दुल्ला ने राजनीति का रास्ता तो समाज के लिए अपनाया, लेकिन बाद में उनकी राजनीतिक विरासत वंशवादी सियासत की ओर चली गई. उनके बाद नेशनल कॉन्फ्रेंस उनके बेटे डॉ फारूक अब्दुल्ला और पोते उमर अब्दुल्ला के हाथों में बनी रही है.
रियासत के भारत में विलय में अहम भूमिका
शेख अब्दुल्ला को बीसवीं सदी के दक्षिण एशिया के सबसे मशहूर और सर्वाधिक विवादास्पद नेताओं में से एक माना गया है. वे एक उग्र कश्मीरी राष्ट्रवादी नेता थे जो जम्मू कश्मीर की डोगरा राजशाही के विरोधी थे. सन 1947 में जम्मू-कश्मीर रियासत के भारत में विलय में उनकी अहम भूमिका थी. वे जम्मू-कश्मीर के प्रधानमंत्री बनाए गए थे. इस पद पर रहते हुए उन्होंने क्रांतिकारी भूमि सुधार लागू किए थे. बाद में वे कश्मीरियों को आत्मनिर्णय का अधिकार देने की वकालत करने लगे, जो वास्तव में अलगाववादी विचार था. उनके इस रवैये के चलते सन 1975 में भारत सरकार के साथ समझौता करने से पूर्व उन्हें दो दशक जेल में बिताने पड़े. वह एक ऐसे नेता थे जिन्हें भारत के साथ पाकिस्तान में भी देशभक्त के साथ-साथ देशद्रोही भी कहा जाता रहा. शेख अब्दुल्ला ने आधी सदी से ज्यादा वक्त कश्मीर की राजनीति में अहम भूमिका निभाते हुए बिताया.
धर्मनिरपेक्ष पहचान के लिए पार्टी का नाम बदला
शेख अब्दुल्ला की पार्टी ऑल जम्मू एंड कश्मीर मुस्लिम कॉन्फ्रेंस थी. हालांकि उन्हें बाद में अहसास हुआ कि कश्मीर की राजनीति में उनकी धर्मनिरपेक्ष पहचान जरूरी है. यही कारण है कि सन 1939 में उन्होंने अपनी पार्टी के नाम में से ‘मुस्लिम’ शब्द और राज्य का नाम हटाकर ‘नेशनल कॉन्फ्रेंस’ कर दिया. उनकी पंडित जवाहरलाल नेहरू से मित्रता थी.
डोगरा राज परिवार के खिलाफ ‘कश्मीर छोड़ो’ आंदोलन
आजादी की लड़ाई में जब देश भर में ‘अंग्रेजो भारत छोड़ो’ का नारा लगाया जा रहा था, तब राजशाही का विरोध करने वाले शेख अब्दुल्ला की पार्टी नेशनल कॉन्फ्रेंस ने सन 1946 में डोगरा राज परिवार के खिलाफ बड़े स्तर पर ‘कश्मीर छोड़ो’ आंदोलन शुरू कर दिया था. बाद में सूबे के महाराजा हरि सिंह ने उन्हें देशद्रोह के आरोप में गिरफ्तार कर लिया था. पंडित नेहरू ने इसका विरोध किया था, लेकिन राजा हरि सिंह ने इस पर भी शेख अब्दुल्ला को रिहा नहीं किया था. आजादी मिलने के बाद ही वे रिहा हो सके थे.
सन 1948 में जम्मू कश्मीर के प्रधानमंत्री बने थे शेख अब्दुल्ला
आजादी मिलने के बाद उन्होंने पाकिस्तान की ओर से समर्थित हमलावरों से कश्मीर की रक्षा करने के लिए राज्य के लोगों को संगठित किया. उन्होंने महाराजा हरि सिंह को रियासत का भारत में विलय करने के लिए मनाया. वे पांच मार्च 1948 को राज्य के प्रधानमंत्री नियुक्त किए गए थे. सन 1949 में शेख अब्दुल्ला भारत की संविधान सभा में भी शामिल हुए थे. जम्मू और कश्मीर के भारतीय संघ में शर्तों के साथ विलय में उन्होंने अहम भूमिका निभाई थी. इन्हीं शर्तों के चलते जम्मू कश्मीर के आर्टिकल 370 लागू हुआ था और उसे विशेष राज्य का दर्जा मिला था. शेख अब्दुल्ला सन 1953 तक जम्मू-कश्मीर के प्रधानमंत्री रहे. वे जम्मू-कश्मीर की संविधान सभा में भी शामिल थे.
अलगाववाद के समर्थन के कारण जेल
शेख अब्दुल्ला को सन 1953 में केंद्र सरकार की ओर से पद से हटा दिया गया और गिरफ्तार कर लिया गया. उनके स्थान पर बख्शी गुलाम मोहम्मद जम्मू कश्मीर के नए प्रधानमंत्री बनाए गए. गुलाम मोहम्मद को पंडित नेहरू का समर्थन मिला था. इसके पीछे कारण यह था कि पंडित नेहरू शेख अब्दुल्ला की भारतीय लोकतंत्र के प्रति निष्ठा को लेकर संदेह में थे. अब्दुल्ला भारत के प्रति प्रतिबद्धता बनाए रखने और अलगाववादियों पर अंकुश लगाने से लगातार इनकार करते रहे थे. उनको सन 1958 में कुछ अरसे के लिए रिहा करने के बाद फिर से गिरफ्तार कर लिया गया था. पंडित नेहरू की पहल पर ही सन 1964 में उनको रिहा किया गया था.
सन 1975 में कश्मीर समझौते के तहत रियासत के भारत में विलय की अंतिम रूप से स्वीकार किया गया. इसके बाद शेख अब्दुल्ला कांग्रेस के समर्थन से मुख्यमंत्री बनाए गए. इसके बाद सन 1977 में हुए चुनावों में नेशनल कॉन्फ्रेंस को जीत मिली. अब्दुल्ला का आठ सितंबर 1982 को निधन हुआ. तब वे राज्य के मुख्यमंत्री थे.
फारूक अब्दुल्ला को मिली राजनीतिक विरासत
शेख अब्दुल्ला के निधन के बाद उनके बेटे फारूक अब्दुल्ला नेशनल कॉन्फ्रेंस के अध्यक्ष और जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री बने. देश की आजादी के बाद कई दशकों तक नेशनल कॉन्फ्रेंस ठीक उसी तरह जम्मू-कश्मीर की सियासत के केंद्र में रही, जैसे देश में कांग्रेस पार्टी. शेख अब्दुल्ला की राजनीतिक विरासत फारूक अब्दुल्ला को मिली. सन 2002 में शेख अब्दुल्ला की तीसरी पीढ़ी में फारूक अब्दुल्ला के पुत्र उमर अब्दुल्ला के हाथ में पार्टी की कमान आई. हालांकि सन 2009 में एक बार फिर फारूक अब्दुल्ला ने पार्टी का नेतृत्व संभाल लिया.
शेख अब्दुल्ला के पोते उमर अब्दुल्ला भी मुख्यमंत्री रहे
फारूक अब्दुल्ला सन 1982 से 2002 तक नेशनल कॉन्फ्रेंस के अध्यक्ष रहे और फिर 2009 के बाद से पार्टी के अध्यक्ष हैं. फारूक तीन बार सन 1982 से 84 तक, सन 1986 से 90 तक और सन 1996 से 2002 तक जम्मू कश्मीर के मुख्यमंत्री रहे. वे सन 2017 में श्रीनगर से लोकसभा सांसद चुने गए थे. राज्य की सत्ता शेख अब्दुल्ला, फारूक अब्दुल्ला से होते हुए सन 2009 में उमर अब्दुल्ला के हाथ में आई.
नेशनल कॉन्फ्रेंस के उपाध्यक्ष उमर अब्दुल्ला 2009 से 2015 तक राज्य के मुख्यमंत्री रहे. हालांकि इसके पहले वे 2001 से 2002 तक केंद्र सरकार में विदेश राज्यमंत्री भी रह चुके थे. उमर मुख्यमंत्री बनने से पहले 1998 से 2009 तक सांसद रहे थे.
अब उमर अब्दुल्ला दोनों बेटों को राजनीति के मैदान में उतारने की तैयारी चल रही है. वे दोनों लोकसभा चुनाव अपने पिता का प्रचार करते हुए देखे गए थे.
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