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गठबंधन का दौर, साथियों को साथ रखना कितनी बड़ी होगी चुनौती

यह एक बेहद दिलचस्प चुनाव परिणाम है. ये इसलिए भी दिलचस्प है क्योंकि जिस समय चुनाव परिणाम आ रहे थे, उस दौरान ऐसा एक भी मौका नहीं आया जब एनडीए और इंडिया गठबंधन में किसी एक को भी अपनी जीत का जश्न मनाने का मौका मिला हो. इस चुनाव भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) बहुमत हासिल करने में काफी पीछे रह गई है. हालांकि, अगर बात एनडीए की करें तो उसे पूर्ण बहुमत हासिल है. 

पिछले एक दशक में पस्त पड़े विपक्ष के लिए ये चुनावी नतीजे उन्हें वास्तव में खेल में वापस लाकर खड़ा कर रहे हैं. अमेठी और रायबरेली में कांग्रेस और खासकर गांधी परिवार के लिए एक बड़ी जीत है. कांग्रेस भाजपा से लगभग 140 सीटों पीछे है. लेकिन इस परिणाम का मतलब है कि राहुल गांधी उतने कमजोर नहीं हैं जितना भाजपा ने उन्हें मानकर चल रही थी. 

चुनाव परिणाम को लेकर भाजपा ने पहले ही अपनी जीत की घोषणा कर दी थी और परिणामों से विचलित नहीं हो रही है. पार्टी के लिए, मोदी का रथ जारी है. एक झटका जरूर लगा है, लेकिन पार्टी एनडीए को मिली इस जीत को मोदी 3.0 की तरह देख रही है. 

एक जटिल चुनौती

निर्विवाद रूप से सबसे बड़ी अकेली पार्टी होने के नाते, गठबंधन पर भाजपा का स्पष्ट रूप से अधिक नियंत्रण होगा, जिससे एक स्थिर सरकार बन सकेगी. लेकिन अब नरेंद्र मोदी की गठबंधन चलाने की क्षमता का परीक्षण होगा. खासकर नीतीश कुमार और एन. चंद्रबाबू नायडू जैसे नेताओं के साथ, जो  गठबंधन की राजनीति के दिग्गज हैं. 

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इंडिया गठबंधन के कुछ सहयोगी नीतीश कुमार और नायडू से संपर्क साधने के लिए जोर लगा रहे हैं. विपक्ष को लग रहा है वह इन दोनों नेताओं से संपर्क साधने के साथ उस जादुई आंकड़े तक पहुंच सकते हैं जो उन्हें सत्ता दिला सकती है. हालांकि, यह असंभव और कठिन लगता है. भाजपा सबसे बड़ी अकेली पार्टी होने के नाते निश्चित रूप से सरकार बनाने का नैतिक अधिकार का दावा कर सकती है. गठबंधन की राजनीति एक पेचीदा और खतरनाक रास्ता है. 

वाजपेयी युक के ‘संकटमोचन’ अब नहीं है साथ

भाजपा इतनी आसानी से कानून नहीं बना पाएगी और उसे वाजपेयी-युग के गठबंधन की शैली को फिर से अपनाने की आवश्यकता होगी. केवल संख्या ही चिंता का विषय नहीं हैं. पिछले 10 वर्षों में जिस तरह से भाजपा ने क्षेत्रीय ताकतों को कमजोर किया है और असंतोष को रोकने के लिए एजेंसियों और संस्थानों के इस्तेमाल के आरोपों ने उसके सहयोगियों को सतर्क कर दिया है.

वर्तमान समय में भाजप को अंदर और बाहर के उदारवादियों को उनकी जीत का स्वाद लेने देना होगा और उदारवादियों को मोदी 3.0 के लिए तैयार रहना होगा. यह मोदी-मोडिरेट इक्वेश्न एक बहुत ही महत्वपूर्ण पहलू है जो इस कार्यकाल में उजागर हो सकता है. हालांकि, पिछले एक दशक में, कट्टर हिंदुत्ववादी भाजपा नेताओं के नए झुकाव ने विपक्ष को अलग-थलग कर दिया है और उसे गठबंधन चलाने का कम ही अनुभव है.

खास बात ये है कि वाजपेयी-युग के संकटमोचनकर्ता, जैसे अरुण जेटली, प्रमोद महाजन या सुषमा स्वराज अब मौजूद नहीं हैं. भाजपा को सहकारी संघवाद की भावना को अपनाना होगा और यह समझना होगा कि क्षेत्रीय दलों को नाराज करना नए शासन के लिए हानिकारक होगा.

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अधिक समायोजनकारी राजनीति

वर्तमान परिदृश्य में, परिणाम हिंदुत्व के इर्द-गिर्द घूमने वाले अधिक समायोजनकारी राजनीतिक एजेंडे की आवश्यकता पर भी बल देते हैं. वास्तव में, उत्तर प्रदेश में भाजपा के लिए हुए उलटफेर इस बात का संकेत हो सकते हैं कि कट्टरपंथी एजेंडे की अपील फिलहाल कमजोर है. फैजाबाद, अयोध्या और राम मंदिर की सीट पर मिली हार एक स्पष्ट संदेश है. मंदिर को लेकर जिस तरह के नारे दिए गए उसका कम से कम अगले पांच वर्षों में, इसका राष्ट्रीय स्तर पर चुनावी लाभ नहीं मिलता दिख रहा है.

आने वाली सरकार को कृषि असंतोष से निपटने, बेरोजगारी और अन्य प्रमुख आर्थिक विकास संकेतकों पर ध्यान केंद्रित करना होगा. सभी क्षेत्रीय ताकतों के लिए समायोजन की सच्ची भावना और विपक्ष के साथ तालमेल बिठाने से पांच साल आसानी से मिल सकते हैं.

इंडिया ब्लॉक का प्राथमिक उद्देश्य सामंजस्य और केमिस्ट्री बनाए रखना और खुद को एक ठोस विपक्ष के रूप में तैयार करना है.  ऐसे सहयोगी भी हैं जो बहुमत जुटाने का विचार नहीं छोड़ सकते. लेकिन अगर हम संख्याओं की दौड़ के युग में वापस आते हैं, तो यह दोनों के लिए एक दुस्साहस हो सकता है. नरमपंथियों को मोदी को गले लगाना उतना ही सीखना होगा जितना मोदी को उन्हें गले लगाना है. 

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