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आदिवासी दिवस विशेष : जिनकी वजह से बचे हैं जल-जंगल और जमीन, उनके बारे में कब सोचेंगे हम?


नई दिल्ली:

वैसे तो भारत में प्रकृति प्रेम और प्रकृति पूजा की समृद्ध परंपरा रही है, मगर वक्त और आधुनिकता के साथ कदमताल के चक्कर में हमारी ये परंपरा पीछे छूट गई. फिर भी जनजातीय समूहों ने आजतक प्रकृति का दामन थामा हुआ है. भले ही दुनिया की आबादी में आदिवासियों की हिस्सेदारी कम है, लेकिन प्रकृति के लिए इनका योगदान बहुत बड़ा है. इसलिए आदिवासियों के इस योगदान को सेलिब्रेट करने और उनका शुक्रिया अदा करने के लिए हर साल 9 अगस्त को अंतरराष्ट्रीय आदिवासी दिवस (World Tribal Day) मनाया जाता है.

भारत में करीब साढ़े 10 करोड़ आदिवासी हैं. इनकी सादगी, इनका विश्वास, इनके मूल्य…ये सब मिलकर भारत ही नहीं, बल्कि दुनिया के सामने एक ऐसा समाज बनाते हैं जिनकी आस्था में प्रकृति बसती है. अगर दुनिया का फेफड़ा जिंदा है, अगर लोगों को सांस लेने के लिए थोड़ी बहुत साफ हवा मिल जाती है, तो इन लोगों की बदौलत है. इन लोगों के लिए प्रकृति से प्रेम ही ईश्वर के प्रति प्रेम है. अंतरराष्ट्रीय आदिवासी दिवस पर जब भारत समूची दुनिया के आदिवासियों के संकल्प और संताप में एक साथ शामिल होता है, तो उसके सामने राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू एक नया मिसाल पेश करती हैं.

राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने एक इवेंट में कहा, “मेरे पिता पेड़ों को रोज हाथ जोड़कर प्रणाम करते थे. मैंने पूछा, तो बोले कि उन पर कुल्हाडी चलाने से पहले क्षमा मांगता हूं.”

कौन होते हैं आदिवासी?
आदिवासी उन्हें कहते हैं, जो प्रकृति की पूजा करने और उसकी रक्षा करने वाले हैं. जिन्हें जंगल, पेड़, पौधों और पशुओं से बेहद प्यार है. उनकी जीवन शैली सादा है, स्वभाव शालीन और शर्मीला होता है. ये पारंपरिक भोजन करते हैं. अपने त्योहारों को वैभव से नहीं, बल्कि विश्वास से उल्लास में बदलते हैं.

आदिवासी शिकार में माहिर होते हैं. धनुष-बाण उनके हथियार होते हैं. वो अपने पूर्वजों की बनाई परंपरा का सच्चे दिल से पालन करते हैं. उन्हें अपनी पंरपरा से निकली कला और गीत-संगीत से बेहद लगाव होता है. उन्हें अपनी भाषा, संस्कृति और मिट्टी से स्वाभाविक अनुराग होता है. वो जड़ी-बूटियों और औषधियों का बहुत बारीक ज्ञान रखते हैं.

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दुनिया के 70 देशों में आदिवासियों का प्रभाव
दुनिया में करीब 200 देश हैं, जिनमें से 70 देशों में आदिवासियों का प्रभाव दिखता है. दुनिया में 5000 आदिवासी समाज की 7000 भाषाएं हैं. दिसंबर, 1994 में संयुक्त राष्ट्र ने यह निर्णय लिया था कि विश्व के आदिवासी लोगों का अंतरराष्ट्रीय दिवस हर साल 9 अगस्त के दिन मनाया जाएगा. यह दिन आदिवासियों की संस्कृति, सभ्यता, उपलब्धियों और समाज और पर्यावरण में उनके योगदान की तारीफ करने का दिन होता है. 

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भारत में आदिवासियों की स्थिति
साल 2011 की जनगणना के मुताबिक, देश में फिलहाल अनुसूचित जनजातियों की आबादी 10.45 करोड़ हो चुकी है. ये कुल आबादी का 8.6 फीसदी है. भारत में करीब 705 जनजातीय समूह हैं. इनमें 75 विशेष रूप से कमजोर जनजातीय समूह हैं.

इन राज्यों में आदिवासियों की आबादी
भारत में आदिवासी मुख्य रूप से ओडिशा, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, झारखण्ड, अंडमान-निकोबार, सिक्किम, त्रिपुरा, मणिपुर, मिज़ोरम, मेघालय, नागालैंड और असम में काफी बड़ी संख्या में पाए जाते हैं. इनमें सबसे खास अंडमान द्वीप पर स्थित सेंटीनल में रहने वाली जारवा नामकी जनजाति है, जिन्हें दुनिया का सबसे पुराना जीवित आदिवासी समाज माना जाता है. 

अंडमान द्वीप पर स्थित सेंटीनल में जारवा जनजाति आज मुश्किल से 400 के करीब बचे हैं. ये सुअर, कछुआ और मछली खाकर जीवित रहते हैं. इनके साथ फल जड़ीवाली सब्जियां और शहद भी इनके खाने में शामिल हैं. करीब 60 हजार साल से ये द्वीप उनका आशियाना है, जहां बाहरी लोगों की मामूली सी दस्तक भी बर्दाश्त नहीं करते. इसीलिए वहां जिसने भी जाने की कोशिश की, वो जान से हाथ धो बैठा.

कई मौलिक सुविधाओं से वंचित
शहरों की चमक दमक से दूर प्रकृति के छांव में रहने वाले आदिवासी कई मौलिक सुविधाओं से वंचित हैं. विकास की दौड़ में वो पीछे ना रह जाएं, इसके लिए संविधान के निर्माण के वक्त ही इनके लिए सरकारी नौकरियों में 7.5 फीसदी आरक्षण की व्यवस्था की गई. अभी उसमें भी क्रीमी लेयर लाने की बात सुप्रीम कोर्ट ने कही, तो विश्व आदिवासी दिवस के मौके पर उनका ये सवाल सतह पर आ चुका है.

आरक्षण में क्रीमी लेयर बड़ा मुद्दा
SC/STs के आरक्षण में क्रीमी लेयर को लाने की बात पर BJP सांसद फग्गन सिंह कुलस्ते कहते हैं, “पीएम मोदी ने साफ साफ कहा है कि आरक्षण में क्रीमी लेयर लागू नहीं होगा.” छत्तीसगढ़ में पूर्व मंत्री अमरजीत भगत कहते हैं, “ये फैसला आरक्षण के मूल अवधारणा के खिलाफ है. SC/ST में आरक्षण का मूल आधार छुआछूत मिटाना था. इसे फैसले से SC/ST समाज पर असर पड़ेगा.” शुक्रवार को हुई मोदी कैबिनेट की मीटिंग के बाद सरकार ने भी साफ कर दिया कि संविधान में SC/ST आरक्षण में क्रीमी लेयर को शामिल करने का कोई प्रावधान नहीं है. लिहाजा इसपर विचार नहीं किया जा सकता.”

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हाल के समय में बढ़ी राजनीतिक नुमाइंदगी
हालांकि, देखा जाए तो वक्त के साथ-साथ आदिवासियों की स्थिति बेहतर हुई है. आज देश की राष्ट्रपति एक आदिवासी महिला हैं. छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री विष्णुदेव साय और झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन आदिवासी समाज से आते हैं. लेकिन सिर्फ राजनीतिक नुमाइंदगी ही सब कुछ नहीं है. इसीलिए आदिवासियों की बेहतरी के लिए सरकार ने भी कुछ बेहतरीन कार्यक्रम चलाए हैं.

पर्यावरण संतुलन को लेकर आदिवासी समूह दिखा सकते हैं रास्ता
आज पूरी दुनिया विकास और पर्यावरण के बीच संतुलन बैठाने के लिए माथापच्ची कर रही है. ऐसे में दुनिया के आदिवासी समूह हमें रास्ता दिखा सकते हैं, जिन्होंने विकास के क्रम में खुद को खड़ा करने के प्रयास किए. साथ ही अपनी जड़ों और ज़मीन से भी जुड़े रहे. भारत ही नहीं दुनिया के कई मुल्कों में आदिवासी समुदाय के लोग संसद तक पहुंचे है. जो ये बताता है कि खुद को आगे बढ़ाने के साथ साथ हम अपनी धरती को भी संरक्षित रख सकते हैं.

न्यूजीलैंड की आदिवासी युवा सांसद के वीडियो की रही धूम
साल 2024 की शुरुआत में ही न्यूजीलैंड की आदिवासी युवा सांसद हाना-रावहिती मैपी-क्लार्क ने संसद में अपनी मिट्टी से जुडे भावनाओं का इजहार ‘माओरी हाका’ से किया. इससे पूरी दुनिया में इस गाने की धूम मच गई. न्यूजीलैंड की युवा सांसद का वीडियो सोशल मीडिया पर जमकर वायरल हुआ. इसमें वो अपने लोगों, आदिवासियों के प्रति प्रतिबद्धता दिखाते हुए गाना गा रही हैं- ‘मैं आपके लिए मर जाऊंगी, लेकिन मैं आपके लिए जीऊंगी भी.’

‘माओरी हाका’ जनजातियों के स्वागत का एक पारंपरिक तरीका है. ये युद्ध से पहले आदिवासी योद्धाओं को ऊर्जा देने का भी एक साधन था. यह शारीरिक शक्ति का प्रदर्शन था. 

अगर दुनियाभर के आदिवासी अपने अधिकारों के प्रति सचेत नहीं होते, तो आधुनिकता के अंधाधुंध दौर में जल और जंगल का अस्तित्व मिलना भी मुमकिन नहीं होता. हालांकि, अपनी मिट्टी से जुड़ने की ललक कही जगह इनको पूरी दुनिया से अलग थलग कर देती है.

यहां आज भी आदिमानव की जिंदगी जीते हैं आदिवासी समुदाय
दक्षिण अमेरिका के इक्वाडोर के पूर्वी क्षेत्रों के जंगलों में ऐसी जनजाति है, जो बिना वस्त्र के रहते हैं. यहां तक कि महिलाएं भी कपड़े नहीं पहनती. इस जनजाति का नाम हुआरानी है, जो आज भी आदिमानव की जिंदगी जीते हैं. हालांकि, अब इन आदिवासियों की संख्या मुश्किल से 4000 बची है. 1990 में इन्हें विलुप्त होने से बचाने के लिए संरक्षित करने का प्रयास शुरू हुआ. इस जनजाति की महिलाएं घर में ही रहकर खाना बनाती हैं और बच्चों की देखभाल करती हैं. जबकि पुरुष आदिमानव की तरह जंगलों में शिकार करते हैं. इन लोगों का मुख्य भोजन मांसाहार है. 

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हैरानी वाली बात यह है कि मानव सभ्यता में इतना कुछ बदलाव आया है, लेकिन ये अब भी पहले की तरह जीवन जी रहे हैं. हालांकि वैश्विक स्तर पर आदिवासियों के लिए बहुत काम किया जाना बाकी है. 

विश्व आदिवासी दिवस तो सिर्फ एक दिन का मसला है, लेकिन जिस वक्त दुनिया प्रदूषण की समस्या से त्रस्त है. उस वक्त ये आदिवासी हमें बता रहे हैं कि प्रकृति से मिलकर रहने वाला ही इस दुनिया को बचा पाएगा. बेशक ये काम आज तो आदिवासी ही कर रहे हैं.

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