ईद-ए-ग़दीर की क्या है मान्यता? मुस्लिम के साथ हिंदू भी मनाते हैं ये ईद; इसी के बाद पूरा हुआ था इस्लाम
नई दिल्ली:
इस्लामिक कैलेंडर (Islamic Calender) का आखिरी महीना जिलहिज्जा होता है और उसकी 18वीं तारीख ईद-ए-ग़दीर (Eid-E-Ghadir) होती है, इस तारीख को इस्लाम के आखिरी पैगंबर हजरत मोहम्मद मुस्तफा ने अल्लाह के हुकुम से हजरत अली को अपना जानशीन बनाया था, और कहा था कि जिस जिस का मैं मौला हूं, उस उस का अली मौला है. वहीं ये सब हज से वापस लौटते हुए तकरीबन 1 लाख 24 हज़ार हाजियों के बीच में गदीर-ए-खूम नाम की जगह पर ऐलान किया, जो मक्का और मदीना के बीच में एक जगह है. तब से यानी 10 हिजरी से लेकर अब तक हर साल 18 जिलहिज्जा तक ईद-ए-ग़दीर मनाई जाती है. वहीं हजरत अली के चाहने वाले चाहे हिंदू या मुस्लिम जो भी हैं वो सभी इस दिन शरबत, खाना, पीना, महफिल आदि करवाते हैं.
कौन हैं हज़रत अली?
आपको बता दें कि सिर्फ़ इस दुनिया में हज़रत अली ही वो इंसान हैं जो खाना-ए-काबा के अंदर पैदा हुए. वहीं हज़रत अली के पिता हज़रत अबू तालिब हैं, जिन्होंने पैग़म्बर मोहम्मद साहब को बचपन से ही अपने पास पाला और हर तरह से हिफ़ाज़त की. वहीं हज़रत अली के लिए ही मोहम्मद साहब ने फ़रमाया कि मैं इल्म का शहर हूं और अली उसका दरवाज़ा हैं, अगर किसी को मुझ तक आना है तो उसे अली से दो बार मिलना होगा, एक जब आये तब और दूसरा जब वापस जाएं तब.
ईद-ए-गदीर की क्या है इस्लाम में मान्यता, क्यों हिंदू और मुस्लिम मनाते हैं ये ईद?
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— The HindkeshariIndia (@ndtvindia) June 25, 2024
इस्लाम के लिए हज़रत अली और उनके परिवार ने दी क़ुर्बानी
हज़रत अली हक के साथ जीते थे, उन्हें दुनिया इंसाफ़ के लिए जानती थी, वो ग़रीबों को सहारा देना, मज़लूमों के साथ खड़ा रहना आदि हर इंसानियत के साथ खड़े रहते थे. हज़रत अली जहां काबे में पैदा हुए वहीं उनकी मस्जिद के अंदर नमाज़ पढ़ते हुए अब्दुर रहमान इब्ने मुलजिम नाम के व्यक्ति ने उन्हें रौज़े की हालत में तलवार सिर पर मारकर शहीद कर दिया, ग़ौर करने वाली बात ये है की जिस वक़्त उनके ज़रबत सिर पर लगी, उसके बाद भी हज़रत अली ने अपने कातिल के लिए कहा कि उसे शरबत पीला दो वो घबराया हुआ है.
वहीं आपने मोहर्रम में इमाम हुसैन और उनके 72 साथियों की तीन दिन तक भूखे प्यासे शहादत की खबर देखी ही होगी, जो कि ख़ुद हज़रत अली और बीबी फ़ातिमा के ही बेटे हैं. वहीं दूसरे बेटे इमाम हसन को भी ज़हर देकर मार दिया गया.
वहीं आपको बता दें मोहम्मद साहब ने जाते वक़्त भी यही कहा था कि एक मेरा क़ुरान और दूसरा मेरे अहलैबैत यानी परिवार को ना छोड़ना, जिसका उन्होंने अपनी ज़िंदगी में ही जंग-ए-मुबाहिला में अपने साथ उनकी बेटी बीबी फ़ातिमा जहरा, उनके दामाद हज़रत अली और नवासे इमाम हसन और हुसैन साथ गए थे और जीतकर आये थे.
हज़रत अली के लिए कहा जाता है कि वो ज़मीन से ज़्यादा आसमान के रास्ते जानते हैं, उन्हें इतना बहादुर कहा जाता था कि उन्होंने बड़े से बड़े जंग लड़ने वालों को पछाड़ दिया था. हज़रत अली का मक़सद सिर्फ़ और सिर्फ़ इंसानियत के लिए खड़ा रहना बताया गया है और यही कारण है कि आज दुनिया उन्हें याद करती है.