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कोटे में कोटा: आज नेता क्यों इतने चुपचाप हैं, क्या आने वाला कोई तूफान है

वहीं आंध्र प्रदेश में सरकार चला रही तेलुगू देशम पार्टी ने इसका समर्थन किया है.आंध्र के मुख्यमंत्री एन चंद्रबाबू नायडू ने कहा कि उनकी पार्टी ने 1996 में एससी उपवर्गीकरण करने के लिए जस्टिस रामचंद्र राजू आयोग का गठन कर इस दिशा में पहला कदम उठाया था.उन्होंने कहा,”सभी वर्गों के साथ न्याय होना चाहिए और सामाजिक न्याय की जीत होनी चाहिए.यह तेदेपा का दर्शन है.सबसे गरीब वर्गों तक पहुंचने के लिए उपवर्गीकरण उपयोगी होगा.”

क्यों चुप्पी साधे हुए हैं राजनीतिक दल

सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले पर मुख्यधारा के राजनीतिक दल बीजेपी और कांग्रेस ने अभी कोई आधिकारिक बयान नहीं जारी किया है. यहां तक की दलितों की राजनीति करन वाली बसपा ने भी चुप्पी साधी हुई है. लेकिन ऐसा नहीं है कि फैसला आने से पहले इन दलों ने इस तरह की मांग नहीं थी. पिछले दशक के शुरूआती सालों में उत्तर प्रदेश में बीजेपी सरकार चला रही थी. बीजेपी की यूपी सरकार ने 2001 में हुकुम सिंह की अध्यक्षता में समाजिक न्याय समिति का गठन किया था. इस समिति ने 2002 में अपनी रिपोर्ट सौंपी थी.इसमें एससी-एसटी के 21 फीसदी और पिछड़ों के 27 फीसदी आरक्षण कोटे को विभाजित करने की सिफारिश की गई थी. 

उत्तर प्रदेश में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति में कुल 66 जातियां हैं. हुकुम सिंह समिति ने प्रदेश के 10 लाख सरकारी पदों का विश्लेषण किया था. इस आधार पर समिति ने कहा था कि कुछ जातियां अपनी आबादी का 10 फीसदी भी आरक्षण नहीं ले पाई हैं. इसलिए 21 फीसदी आरक्षण को दलित (जाटव-धुसिया-चमार) और अति दलित (64 जातियों) के दो हिस्सों में 10 फीसदी और 11 फीसदी में बांट देना चाहिए.बीजेपी की सरकार ने इस समिति की सिफारिशों पर आजतक अमल नहीं किया है. 

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बिहार में दलित बनाम महादलित

वहीं उत्तर प्रदेश की पड़ोसी बिहार में नीतीश कुमार की सरकार ने दलितों को दलित और महादलित के रूप में बांटने का काम किया है. लेकिन यह राजनीतिक स्टंट भर है. नीतीश कुमार दुसाधों को दलित और अनुसूचित जाति की बाकी जातियों को महादलित बताते हैं. उनकी सरकार ने महादलितों के लिए कुछ परियोजनाएं शुरू की थीं. लेकिन अनुसूचित जातियों में सब कैटेगरी बनाने का काम नहीं कर पाए थे. 

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