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बिना प्रेस किए हुए कपड़े क्यों पहन रहे हैं ये साइंटिस्ट, क्लाइमेंट चेंज से क्या है इसका नाता

सोमवार को बिना प्रेस किए हुए कपड़े पहनकर आना दरअसल जलवायु परिवर्तन के खिलाफ एक सांकेतिक लड़ाई है.डॉक्टर एन कलैसेल्वी सीएसआईआर की पहली महिला महानिदेशक हैं. उन्होंने इस अभियान के बार में मीडियाकर्मियों को बताया कि डब्लूएएच मंडे उर्जा साक्षरता के बड़े अभियान का एक हिस्सा है. सोमवार को बिना प्रेस किए हुए कपड़े पहन कर सीएसआईआर ने इस दिशा में अपना योगदान देने का फैसला किया है.  

एक जोड़ी कपड़ा प्रेस करने से कितना कार्बन उत्सर्जन होता है?

उन्होंने बताया कि एक जोड़ी कपड़े को प्रेस करने से 200 ग्राम कार्बन डाईऑक्साइड के बराबर उत्सर्जन होता है.इसलिए एक आदमी एक दिन बिना प्रेस किए हुए कपड़े पहन कर 200 ग्राम कार्बन डाईऑक्साइड के उत्सर्जन को कम कर सकता है. 

‘रिंगकल अच्छे हैं’ अभियान की शुरुआत एक मई से 15 मई तक चलने वाले स्वच्छता पखवाड़े के तहत की गई है.इस अभियान का उद्देश्य उर्जा की बचत करना है.सीएसआईआर ने देश भर में फैले अपनी प्रयोगशालाओं में बिजली की खपत कम करने के लिए एक स्टैंडर्ड ऑपरेटिंग प्रॉसिजर (एसओपी) लागू किया है. इसके तहत शुरुआत में कार्यस्थल पर बिजली की खपत कम से कम 10 फीसदी कम करने का लक्ष्य रखा गया है.इस एसओपी को जून से अगस्त के बीच लागू किया जाएगा.

सीएसआईआर ने अभी हाल ही में देश की सबसे बड़ी क्लाइमेट घड़ी दिल्ली के रफी मार्ग स्थित अपने दफ्तर में लगाई है. डॉक्टर कलैसेल्वी कहती हैं यह धरती माता और इस ग्रह को बचाने की दिशा में सीएसआईआर की एक छोटी सी कोशिश है.

कितना कार्बन उत्सर्जन रोक सकते हैं सीएसआईआर के कर्मचारी?

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सीएसआईआर की देशभर में 37 प्रयोगशालाएं हैं. इनमें जीव विज्ञान की 11, रसायन विज्ञान की नौ, इंजीनीयरिंग की 10, सूचना विज्ञान की दो और भौतिक विज्ञान की पांच प्रयोगशालाएं हैं. इनमें 3521 वैज्ञानिक और 4162 तकनीकी और सहायक कर्मचारी काम करते हैं. सीएसआईआर के ये वैज्ञानिक और कर्मचारी अगर हफ्ते में एक दिन बिना प्रेस किए हुए कपड़े पहनेंगे तो वे एक दिन में 1536.6 किलो,एक हफ्ते में 10,756.2 किलो, एक महीने में 46,098 किलो और साल में 4,79,419.2 किलो कार्बन का उत्सर्जन रोक सकते हैं. 

क्या है कार्बन उत्सर्जन और जलवायु परिवर्तन

दुनियाभर में कार्बन उत्सर्जन पर नजर रखने वाली संस्था कार्बन ब्रीफिंग के मुताबिक साल 2023 में कोयला, पेट्रोलियम पदार्थ और नेचुरल गैस जैसे फॉसिल फ्यूल या जीवाश्म ईंधन से 36.8 अरब टन कार्बन डाईऑक्साइड का उत्सर्जन हुआ.यह 2022 की तुलना में 1.1 फीसदी अधिक था. 

घर के कामकाज, कल-कारखानों और यातायात के साधनों को चलाने के लिए तेल,गैस और कोयले का इस्तेमाल होता है. इसका जलवायु पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है.जब हम फॉसिल फ्यूल को जलाते हैं तो उससे ग्रीनहाउस गैसें निकलती हैं. इनमें कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा सबसे अधिक होती है.ग्रीन हाउस गैसों की सघन मौजूदगी की वजह से सूर्य का ताप धरती से बाहर नहीं जा पाता है.इससे धरती का तापमान बढ़ता है.वैज्ञानिकों के मुताबिक 19वीं सदी की तुलना में धरती का तापमान लगभग 1.2 सेल्सियस बढ़ चुका है.

एक लंबे समय या कुछ साल में किसी जगह के औसत मौसम को जलवायु कहा जाता है. इन औसत परिस्थितियों में आने वाले बदलाव को जलवायु परिवर्तन कहते हैं.जिस तेजी से जलवायु परिवर्तन हो रहा है, उसके लिए हम खुद ही जिम्मेदार हैं.

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बिना प्रेस किए हुए कपड़े पहनने के अलावा हमारी छोटी-छोटी कोशिशें जलवायु परिवर्तन को नियंत्रित करने की दिशा में बड़ा कदम हो सकती हैं.कम हवाई यात्राएं कर,तेल से चलने वाली कार की जगह इलेक्ट्रिक कारों का इस्तेमाल कर और बिजली बचाने वाले उपकरणों का इस्तेमाल कर भी हम जलवायु परिवर्तन को नियंत्रित करने की दिशा में हम अपना योदगान दे सकते हैं. 

भारत में लॉकडाउन से क्यों कम हुआ कार्बन उत्सर्जन?

 

हमारी ये छोटी-छोटी कोशिशें कितना बड़ा परिवर्तन ला सकती हैं उसे हम कार्बन ब्रिफिंग की एक रिपोर्ट से समझ सकते हैं.रिपोर्ट के मुताबिक मार्च 2020 में कोरोना की वजह से लागू हुए लॉकडाउन की वजह से मार्च के महीने में कार्बन उत्सर्जन में 15 फीसदी की कमी दर्ज की गई थी.वहीं अप्रैल के महीने में यह बढ़कर 30 फीसदी से अधिक हो गया. भारत में ऐसा 35 साल बाद ऐसा हुआ था.इसकी बड़ी वजह बिजली की मांग में कमी आना और सड़कों पर गाड़ियों की संख्या कम होना था. 
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