"इस नई किस्म की फसल से किसानों को नहीं होगी पराली जलाने की जरूरत": पूसा IARI साइंटिस्ट
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‘बासमती धान की नई किस्में डेवलप’
डॉ. राजबीर ने कहा कि पूसा ने बासमती की खासकर कई किस्में डेवलप की हैं,115 से 120 दिनों में इस प्रजाति की फसल तैयार हो जाती है. धान की 1509, 1121 प्रजातियां बहुत ही कम समय लेती हैं. जबकि 1401 में थोड़ा लंबा वक्त लगता है. उन्होंने कहा कि पिछले 4 से 5 सालों से पूसा संस्थान एक वैरायटी को लेकर कोशिश कर रही है, जो पूसा 44 के वैरायटी के बराबर हो. उन्होंने बताया कि पूसा 44 नॉन बासमती वैरायटी है, इसमें कम समय लगता है. पूसा 209 पूसा 44 के बराबर है. पूसा 44 का ज्यादा प्रोडक्शन है . अधिक उपज की वजह से किसान इसको छोड़ना पसंद नहीं करते हैं.
प्रिंसिपल साइंटिस्ट डॉक्टर राजबीर ने कहा कि हमारी कोशिश है कि पूसा 2090 से उपज इतनी ही मिले और ड्यूटेशन कम हो जाए. उन्होंने कहा कि इस बारे में किसानों को बार-बार बताया जा रहा है कि धान की कटाई के बाद जो 15 से 20 दिनों का गेंहू की बुआई का वक्त है उस वक्त को यूज करें. उन्होंने कहा कि अगर खेतों की बिना जुताई किए गेंहू की बुआई किसान सीधे कर सकें तो 15- 20 दिन बच जाएंगे.
‘धान की तरह ही हो रही गेंहू की किस्में डिजाइन’
धान की खेतों में मॉइश्चर अच्छा रहता है तो किसान सीधे बुआई कर सकते हैं. डॉ. राजबीर ने कहा कि गेंहू की किस्में भी उसी तरह से डिजाइन की जा रही हैं. वह पिछले 12 सालों से सीधे सीडिंग की भी कोशिश कर रहे हैं. अनुभव ये कहता है कि धान की कटाई के बाद जो गेंहू की सीधी बुआई होती है, उसमें गेंहू की पैदावार कभी कम नहीं होती. पूसा 44 जैसी वैरायटी में बायोमास का ज्यादा लोड होता है, तो गेंहू की बुआई करने के लिए किसानों को मशीनें अच्छी चाहिए. जैसे हैप्पी सीडर है और इसका इंप्रूव्ड वर्जन, जो गेंहू की अच्छी तरह से बुआई कर सके.
डॉ. राजबीर ने कहा कि अगर तापमान बढ़ने के समय अगर सीधी बुआई और धान का रेसिड्यू खेत में पड़ा रहे तो तापमान को मॉड्यूलेट करता है और फसल को इसका फायदा होता है. कोशिश यही है कि धान और गेंहू के बीच का जो समय है उसको कम कर दें.15 दिनों तक ये वक्त चला जाता है तो इसी हड़बड़ाहट में लोग पराली जलाते हैं.
‘पराली खेत में रखने से बनी रहेगी फसल पैदावार क्षमता’
डॉ. राजबीर ने कहा कि पराली न जलाने का बड़ा फायदा यह है कि अगर उसको खेत में ही रखें तो खेत की पैदावार क्षमता बनी रहती है. दूसरी बात यह है कि गेंहू की पैदावार हमेशा अच्छी रहती है. साथ में सॉइल का स्ट्रक्चर भी इंप्रूव होता है. उन्होंने कहा कि पूरे उत्तर भारत में सॉइल में कार्बन कॉन्टेंट डिक्रीज हो रहा है. धान और गेंहू की फसल लगातार बोई जाती है तो मिट्टी का ऑर्गेनिक कंपाउंड कम होता जा रहा है.
डॉ. राजबीर ने बताया कि ऑर्गेनिक कार्बन कॉन्टेंट सॉइल की पैदावार क्षमता को डिसाइड करता है. पराली अगर खेत में ही रखेंगे और जलाएंगे नहीं और गेंहू की सीधी बुआई कर देंगे तो दो तीन साल में ही उसमें ऑर्गेनिक कार्बन कॉन्टेंट बढ़ना शुरू हो जाता है. सॉइल की फिल्टरेशन कैपेसिटी, वाटर रिटेंशन कैपेसिटी, न्यूट्रिएंट यूज एफिशिएंसी ये सारी चीज़ें इंप्रूव हो जाती हैं.गेंहू की बुआई के लिए अच्छी मशीनरी हो तो किसानों के लिए और एनवायरनमेंट के लिए सीधी बुआई बड़ा अच्छा कारगर तरीका हो सकता है.
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