सैनिकों ने ही कर दी बांग्लादेश के पीएम शेख मुजीब उर रहमान की हत्या, इस देश में थीं शेख हसीना
नई दिल्ली:
शेख मुजीब उर रहमान पाकिस्तान की कैद से आजाद होकर लंदन और दिल्ली होते हुए बांग्लादेश पहुंचे थे. वहां उन्होंने बांग्लादेश की सत्ता संभाली.इसके बाद वो बांग्लादेश के पुनर्निर्माण के काम में लग गए थे. लेकिन 1975 आते आते वो अपने देश में अलोकप्रिय होते चले गए. उन पर भ्रष्टाचार में शामिल होने और भाई-भतीजाबाद के आरोप लगने लगे थे. यहां तक की उनकी हत्या की साजिशें रची जाने लगी थीं. आइए जानते हैं कैसे हुई थी बंगबंधु की हत्या.
जब सैनिकों ने शेख मुजीब उर रहमान को छलनी कर दिया
ढाका के धानमंडी स्थित शेख मुजीब उर रहमान के आवास पर 15 अगस्त, 1975 की सुबह सेना के कुछ अधिकारियों ने धावा बोल दिया.ये अधिकारी और जवान वहां गोलीबारी कर रहे थे. गोलियों की आवाज सुनकर शेख मुजीब उर रहमान ने सेनाध्यक्ष जनरल शफीउल्लाह को फोन किया. उन्होंने पूछा कि तुम्हारे सैनिकों ने मेरे घर पर हमला बोल दिया.ये क्या हो रहा है.उन्होंने सेनाध्यक्ष से कहा कि वो अपने सैनिकों को वापस बुलाएं.इस पर सेना अध्यक्ष ने उन्हें अपने घर से निकलकर बाहर आने को कहा.
घर के निचले हिस्से में हो रही गोलीबारी की आवाज सुनकर मुजीब सीढ़ियों से नीचे उतर रहे थे.यह देखकर सैनिकों ने उनके ऊपर गोलियों की बौछार कर दी.इसमें घायल हुए मुजीब सीढ़ियों से लुढ़कते हुए नीचे आ गए.इसके बाद उनकी पत्नी को गोली मार दी गई.हमलावरों ने उनके दूसरे बेटों और दोनों बहुओं की गोली मारकर हत्या कर दी. उनके सबसे छोटे बेटे 10 साल के रसेल मुजीब की भी गोली मारकर हत्या कर दी गई.
कहां दफनाए गए थे शेख मुजीब उर रहमान
इसके अगले दिन सैनिकों ने घर से सभी शवों को इकट्ठा किया. वे मुजीब को छोड़ कर बाकी के शवों को ढाका के एक कब्रिस्तान में एक बड़ा सा गड्ढा खोदकर दफना दिया. वहीं मुजीब के शव को हेलिकॉप्टर से उनके पैतृक गांव ले जाया गया.सैनिकों ने उनके गांव को टांगीपारा को चारो तरफ से घेर लिया था. इसका मकसद लोगों को नमाज-ए- जनाजा में शामिल होने से रोकना था.
सैनिकों का जोर दे रहे थे कि मुजीब के शव को जल्द से जल्द दफनाया जाए. इस रास्ते में बाधा बना टांगीपारा का एक मौलवी.उनका कहना था कि बिना नहलाए शव को दफनाया नहीं जा सकता है.वो इस मांग को लेकर अड़ गए थे.लेकिन बड़ी समस्या यह थी कि गांव में कोई नहाने वाला साबुन नहीं था.ऐसे में मुजीब के शव को कपड़ा धोने वाले साबुन से नहलाया गया.इसके बाद उन्हें उनके पिता की कब्र के बगल में दफना दिया गया.उस शाम उस इलाके में झमाझम बारिश हुई. इस मूसलाधार बारिश को देखकर लोगों ने कहा कि जिस तरह से शेख को मारा गया,शायद वो ईश्वर को पसंद नहीं आया.
शेख मुजीब उर रहमान हत्याकांड का मुकदमा
मुजीब की हत्या के बाद बांग्लादेश की सत्ता में आई सैनिक सरकार ने हत्या के कई आरोपियों को राजनयिक नियुक्तियां दीं. यहां तक की कुछ को राजनीतिक दल बनाने और 1980 का चुनाव लड़ने की भी इजाजत दे दी गई थी.ये सरकार करीब 21 साल तक इन आरोपियों पर मुकदमा चलाने से बचती रही.यह मुकदमा तभी संभव हो पाया, जब 1996 में शेख हसीना में बांग्लादेश में सरकार बनाई. उन्होंने इस हत्याकांड के लिए तत्कालीन राष्ट्रपति जियाउर रहमान को जिम्मेदार ठहराती रहीं हैं.
इस मामले में 1998 में दर्जनों दोषियों को मौत की सजा सुनाई गई थी.बांग्लादेश की सुप्रीम कोर्ट ने 2009 में इस फैसले को सही ठहराया था. इसके कुछ महीने के भीतर ही फांसी दे दी गई. इस मामले में फरार चल रहे एक दोषी को अप्रैल 2020 में फांसी दी गई थी. कुछ दोषी अभी भी फरार बताए जाते हैं.
सच साबित हुई भारत की आशंका
भारत को इस साजिश की आशंका पहले से ही थी.भारत की तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की 1975 में शेख मुजीब उर रहमान से जमैका में मुलाकात हुई थी.इस दौरान गांधी ने मुजीब की सुरक्षा को लेकर चिंता जताई थी.
लेकिन मुजीब को लगता था कि कोई बंगाली उन्हें नहीं मार सकता है.लेकिन भारत की आशंका सच साबित हुई और शेख मुजीब उर रहमान की हत्या उनके ही घर में उनके सैनिकों ने ही कर दी.
शेख हसीना के परिवार को भारत ने दी शरण
सोमवार को बांग्लादेश के पीएम पद से इस्तीफा देने वाली शेख हसीना शेख मुजीब उर रहमान की सबसे छोटी बेटी हैं. इस हत्याकांड में उनके माता-पिता के अलावा तीन भाइयों और दो भाभियों की भी हत्या कर दी गई थी. उस समय शेख हसीना की उम्र 28 साल थी. वो जर्मनी में रह रही थीं. उनके पति वहां परमाणु वैज्ञानिक के रूप में काम करते थे. इस हत्याकांड के बाद जर्मनी में बांग्लादेश के राजदूत ने भारत की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से संपर्क कर शेख मुजीब उर रहमान दोनों बेटियों को राजनीतिक शरण देने की अपील की. इस अपील को इंदिरा गांधी ने मान लिया. वह भी ऐसे हालात में जब भारत में आपातकाल लगा हुआ था.
शेख हसानी और उनका परिवार 24 अगस्त, 1975 को दिल्ली पहुंचा था. उन्हें भारत की खुफिया एजेंसी रॉ की निगरानी में दिल्ली में रखा गया. इस परिवार के लिए भारत सरकार ने घर और एक गाड़ी की व्यवस्था की थी. बाद में हसीना के पति डॉक्टर वाजेद को परमाणु ऊर्जा विभाग में फेलोशिप दे दी गई. इस परिवार का सारा खर्च भारत सरकार ने उठाया.
शेख हसीना की बांग्लादेश वापसी
इस बीच आवामी लीग के कई नेताओं ने शेख हसीना से मिलकर वापस बांग्लादेश लौटने और राजनीति शुरू करने की अपील की.लेकिन उनके पति शेख हसीना के राजनीति में जाने के खिलाफ थे. आखिर 17 मई, 1981 को शेख हसीना अपनी बेटी और अवामी लीग के कुछ नेताओं के साथ दिल्ली से ढाका रवाना हुई.ढाका के हवाई अड्डे पर करीब 15 लाख उनके स्वागत में पलक पांवड़े बिछाए इंतजार कर रहे थे. यह वहीं बांग्लादेश था, जहां से सोमवार को शेख हसीना को प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा देकर एक बार फिर भारत आना पड़ा है. वो अभी भी दिल्ली में ही हैं.
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