बिहार का 'मिशन-40' : किसके कंधे कौनसा वोट बैंक? 'INDIA' को मात के लिए NDA की 'सोशल इंजीनियरिंग' वाली रणनीति
नई दिल्ली:
लोकसभा चुनाव 2024 (Lok sabha election 2024) को लेकर सभी राज्यों में उम्मीदवारों के नाम का ऐलान किया जा रहा है. भारतीय जनता पार्टी अपने मिशन 370 को पूरा करने के लिए एक-एक सीटों पर समीकरण साधने के प्रयास में है. बिहार में लगातार मंथन के बाद एनडीए (NDA) में सीटों के बंटवारे पर समझौता हो गया और उसके बाद चिराग पासवान (Chirag Paswan) की पार्टी के अलावा सभी दलों ने अपने उम्मीदवारों के नाम भी फाइनल कर दिए हैं. बिहार की राजनीति में जातिगत समीकरण को बेहद अहम माना जाता रहा है. टिकट बंटवारे में भी इस तरफ सबकी नजर होती है कि किस दल ने किस जाति के कितने उम्मीदवारों को मैदान में उतारा है.
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एनडीए के सभी दलों ने मिलकर साधा है जातिगत गणित
एनडीए की सभी दलों के सीट बंटवारे पर अगर चर्चा की जाए तो एक बात जो सबसे पहले सामने आती है वो है कि दलगत भावना से ऊपर उठकर गठबंधन की जरूरत के आधार पर सभी दलों की तरफ से टिकट बंटवारे हुए हैं. बिहार में लोकसभा की 40 सीटें हैं. जिनमें 35 पर उम्मीदवारों का ऐलान हो चुका है. 5 सीट पर चिराग पासवान फैसला लेंगे जिनमें तीन सीट एससी के लिए सुरक्षित हैं. ऐसे में 38 सीटों का जातिगत गणित क्या है वो सामने आ चुका है.
उम्मीदवारों के चयन में बीजेपी का फोकस जहां सवर्ण और यादव उम्मीदवारों पर रहा है. वहीं जनता दल यूनाइटेड OBC और EBC मतदाताओं को साधने के प्रयास में है. दलित मतदाताओं को साधने की जिम्मेदारी बहुत हद तक चिराग पासवान और जीतन राम मांझी के कंधों पर दी गयी है.
बीजेपी ने अपने मजबूत सवर्ण वोट बैंक पर लगाया दांव
जातिगत गणना के आंकड़ों के इतर जाते हुए बीजेपी ने अपने परंपारगत सवर्ण वोट बैंक पर एक बार फिर दांव खेला है. भारतीय जनता पार्टी ने 17 में से 10 सवर्ण उम्मीदवारों को मौका दिया है. हालांकि बीजेपी द्वारा सवर्णों को उतारने के बाद जदयू ने मात्र तीन सवर्ण उम्मीदवार ही उतारे हैं और जदयू का फोकस अपने कोर वोटर अत्यंत पिछड़ी जाति और पिछड़ी जातियों पर रहा है. 16 में से 11 उम्मीदवार जदयू के इन्हीं 2 वर्ग से आते हैं.
नीतीश ने सोशल इंजीनियरिंग और जातिगत आंकड़ों के बीच निकाला रास्ता
नीतीश कुमार की पार्टी के द्वारा घोषित उम्मीदवारों के लिस्ट को अगर देखें तो पार्टी की तरफ से गठबंधन की जरूरत, सोशल इंजीनियरिंग और जातिगत आंकड़ों के बीच रास्ता निकालने का प्रयास किया गया है. नीतीश कुमार ने जहां जातिगत गणना के आंकड़ों से अलग हटकर मात्र एक मुस्लिम उम्मीदवार उतारे हैं लेकिन वहीं ओबीसी और ईबीसी के 16 में से 11 उम्मीदवारों को उतार कर जातिगत गणना के आंकड़ों के आधार पर प्रतिनिधित्व देने का प्रयास किया है.
उपेंद्र, सम्राट और नीतीश पर लव-कुश समीकरण को साधने की जिम्मेदारी?
बिहार की राजनीति में लव-कुश मतदाता एनडीए के लिए लंबे समय से अहम रहे हैं. लव अर्थात कुर्मी समाज के अभी भी बिहार में नीतीश कुमार सबसे बड़े नेता हैं. वहीं कुशवाहा समाज के कई दावेदार रहे हैं. हालांकि लगभग सभी नेता एनडीए के साथ ही हैं. बीजेपी ने सम्राट चौधरी को उपमुख्यमंत्री बनाया है इसके बाद किसी अन्य कुशवाहा नेता को बीजेपी की तरफ से जगह नहीं दी गयी है. इसके साथ ही इसकी जिम्मेदारी नीतीश कुमार और उपेंद्र कुशवाहा को दे दी गयी है.
उम्मीदवारों के चयन में प्रयोग से बचता दिखा एनडीए
पिछले 1 साल में विपक्ष की तरफ से जातिगत जनगणना को मुद्दा बनाने के बाद भी एनडीए की तरफ से उम्मीदवारों के चयन में कोई बड़ा प्रयोग नहीं देखने को मिला है. बीजेपी ने अपने कोर वोटर सवर्ण को एक बार फिर साथ रखने का प्रयास किया है वहीं जदयू की तरफ से भी अपने टारगेट वोटर को साथ रखने की कोशिश हुई है. चिराग पासवान को भी साथ रखने की कोशिश उसी परंपरागत समीकरण को कायम रखने के लिए की गयी जिसके दम पर 2019 में सफलता मिली थी.
दलित और महादलित के मुद्दे से एनडीए ने बनायी दूरी?
लोजपा के साथ गठबंधन के बाद एनडीए की तरफ से दलितों के लिए सुरक्षित 6 में से 3 सीटें लोजपा को दी गयी है. बीजेपी, जदयू और हम के खाते में एक-एक सीट गयी है. नीतीश कुमार लंबे समय तक बिहार में दलित और महादलित की राजनीति करते रहे हैं लेकिन एनडीए की तरफ से अब इस तरह की कोई चर्चा नहीं हुई है. हालांकि जदयू ने अपने खाते की एक सीट पर महादलित को उम्मीदवार बनाया है लेकिन इसकी संभावना कम है कि लोजपा की तरफ से किसी महादलित को उम्मीदवार बनाया जाएगा.
पुराने क्षत्रपों को भी एनडीए ने नहीं किया निराश
एनडीए के उम्मीदवार चयन में पुराने दिग्गजों पर भरोसा जताया गया है. जदयू ने जहां आनंद मोहन सिंह की पत्नी लवली आनंद को पार्टी में शामिल करवाकर राजपूत मतों को एनडीए की तरफ करने की कोशिश की वहीं बीजेपी ने भी राधामोहन सिंह, गिरिराज सिंह, सुशील सिंह, रविशंकर प्रसाद जैसे अनुभवी नेताओं को एक बार फिर चुनावी मैदान में उतार कर किसी भी तरह के नए प्रयोग से अपने आप को रोका है.
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