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मर्दों पर कितनी गहरी दहेज कानून की फांस? जानें क्यों सुप्रीम कोर्ट चाहता है इसमें बदलाव


नई दिल्ली:

सोशल मीडिया पर मंगलवार को एक वीडियो तेजी से वायरल हुआ. एक घंटा 20 मिनट का यह वीडियो था आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस (एआई) इंजीनियर अतुल सुभाष का. अतुल सुभाष ने यह वीडियो रिकॉर्ड करने के बाद बेंगलुरु स्थित अपने घर में फांसी लगा ली थी.वीडियो में अतुल ने पत्नी की ओर से दर्ज कराए गए दहेज प्रताड़ना के आरोप से पैदा हुई परिस्थितियों पर अपनी बात रखी है. उन्होंने लिखा है कि उनकी पत्नी और ससुराल वाले उनके ही पैसे से उन्हें प्रताड़ित कर रहे हैं. उनका आरोप है कि उनकी पत्नी उन्हें उनके बेटे से न मिलने देती है और न ही फोन पर बात कराती है. वीडियो सामने आने के बाद सोशल मीडिया पर लोग दहेज प्रताड़ना से जुड़े कानून के दुरुपयोग की बात उठा रहे हैं. लोगों की मांग है कि इस कानून की समीक्षा की जानी चाहिए. ऐसा नहीं है कि इस कानून की समीक्षा की मांग केवल आम लोग ही कर रहे हैं, सुप्रीम कोर्ट और दूसरी कई और अदालतों ने भी इस कानून की समीक्षा की जरूरत पर जोर दिया है. दहेज प्रताड़ना एक गैर जमानती अपराध है. इसका दोषी पाए जाने पर तीन साल तक कैद का प्रावधान है. आइए जानते हैं कि दहेज प्रताड़ना के खिलाफ आईपीसी की धारा 498A (भारतीय न्याय संहिता 2023 की धारा 85 और 86) है क्या और इसकी समीक्षा की मांग क्यों की जा रही है. 

दहेज प्रताड़ना के आरोपों का दुरुपयोग

जिस दिन अतुल सुभाष का वीडियो वायरल हुआ उसी दिन सुप्रीम कोर्ट ने एक फैसला सुनाया. जस्टिस बीवी नागरत्ना और जस्टिस एन कोटिश्वर सिंह के पीठ ने यह फैसला सुनाया. इसमें सुप्रीम कोर्ट ने वैवाहिक मतभेदों से पैदा हुए घरेलू विवादों में पति और उसके घर वालों को आईपीसी की धारा 498-A में फंसाने की बढ़ती प्रवृत्ति पर गंभीर चिंता जताई. अदालत ने कहा कि धारा 498-A पत्नी और उसके परिजनों के लिए हिसाब बराबर करने का हथियार बन गई है.अदालत ने यह टिप्पणी तेलंगाना के एक मामले में की. इस मामले में एक पति ने पत्नी से तलाक मांगा था. इसके खिलाफ पत्नी ने पति और उनके परिजनों पर घरेलू क्रूरता का केस दर्ज कराया था. इसके खिलाफ पति ने तेलंगाना हाईकोर्ट की शरण ली थी. लेकिन हाई कोर्ट ने केस को रद्द करने से इनकार कर दिया था. इस फैसले को पति ने सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी थी.सुनवाई के बाद अदालत ने कहा कि हाईकोर्ट ने याचिकाकर्ताओं के खिलाफ दर्ज केस रद्द न करके गंभीर गलती की है. 

ऐसा पहली बार नहीं है जब सुप्रीम कोर्ट ने इस कानून के दुरुपयोग पर चिंता जताई है. अभी पिछले महीने ही सुप्रीम कोर्ट ने सभी अदालतों से कहा था कि वे यह सुनिश्चित करें कि घरेलू क्रूरता (डोमेस्टिक वॉयलेंस) के मामलों में पति के दूर के रिश्तेदारों को अनावश्यक रूप से न फंसाया जाए.

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संसद से अदालतों की क्या है उम्मीद

सुप्रीम कोर्ट ने इससे पहले इस साल मई में आचिन गुप्ता बनाम हरियाणा राज्य मामले में पंजाब एंड हरियाणा हाई कोर्ट के एक फैसले को खारिज करते हुए इसी तरह की टिप्पणी की थी. अदालत ने दहेज प्रताड़ना से संबंधित कानून के दुरुपयोग पर चिंता जताते हुए कहा था कि इस कानून में जरूरी बदलाव किया जाना चाहिए.सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस जेबी पारदीवाला और मनोज मिश्र की बेंच ने कहा था,”भारतीय न्याय संहिता 2023 की धारा 85 और 86 एक जुलाई से प्रभावी होने वाली है. ये धाराएं आईपीसी की धारा 498A को दोबारा लिखने की तरह है. हम कानून बनाने वालों से अनुरोध करते हैं कि इस प्रावधान के लागू होने से पहले भारतीय न्याय संहिता 2023 की धारा 85 और 86 में जरूरी बदलाव करने पर विचार करना चाहिए ताकि इसका दुरुपयोग न हो सके. नए कानून में दहेज प्रताड़ना से संबंधित कानून की परिभाषा में कोई बदलाव नहीं किया गया है. केवल इतना बदला है कि धारा 86 में दहेज प्रताड़ना से संबंधित प्रावधान के स्पष्टीकरण का जिक्र है.सुप्रीम कोर्ट ने रजिस्ट्री को निर्देश दिया था कि इस फैसले को गृह मंत्रालय और कानून मंत्रालय के मंत्री को भेजा जाए. सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में 2010 में दिए अपने एक फैसले का जिक्र किया, जिसमें उसने दहेज प्रताड़ना से जुड़े कानून के मिसयूज को रोकने के लिए कानून में बदलाव की सिफारिश संसद से की थी. सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि 498A के मामले में जब शिकायत की जाती है तो कई बार मामले को बढ़ा-चढ़ाकर बताया जाता है. ऐसे में संसद से अनुरोध है कि वह व्यावहारिक सच्चाई को देखते हुए इस कानून में बदलाव पर विचार करें. अदालत ने कहा था कि समय आ गया है कि विधायिका को इस मामले पर विचार करना चाहिए.

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आचिन गुप्ता बनाम हरियाणा राज्य मामले में एक महिला की ओर से पति के खिलाफ दर्ज कराए गए दहेज प्रताड़ना के मामले को खारिज करने की मांग की गई थी. केस को खारिज करने की पति की याचिका को पंजाब एंड हरियाणा हाई कोर्ट ने ठुकरा दिया था. इसके बाद पति ने सुप्रीम कोर्ट की शरण ली थी. इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने पाया था कि एफआईआर में लगाए गए आरोप अस्पष्ट थे. ऐसा लगता था कि ये आरोप वैवाहिक विवादों के कारण प्रतिशोध का हिस्सा थे. अदालत ने पाया कि एफआईआर उस समय दर्ज की गई जब शिकायतकर्ता अपने ससुराल से करीब दो साल पहले चली गई थीं. इससे इसकी विश्वसनीयता पर सवाल पैदा होते हैं. अदालत ने इस मामले में आपराधिक कार्यवाही को यह कहते हुए रद्द कर दिया था कि इन कार्यवाहियों को जारी रखना कानून के दुरुपयोग के समान होगा. अदालत ने कहा था कि एफआईआर को पवित्र नहीं माना जा सकता जब इसका एकमात्र उद्देश्य आरोपी को परेशान करना हो.अदालत ने यह भी कहा था कि हर वैवाहिक झगड़े को धारा 498A के तहत क्रूरता नहीं माना जा सकता. सामान्य वैवाहिक जीवन में होने वाले छोटे-मोटे झगड़े और परेशानियां कानूनी क्रूरता के दायरे में नहीं आतीं. अदालत ने यह भी कहा कि अत्यधिक तकनीकी दृष्टिकोण अपनाने से विवाह संस्था को नुकसान हो सकता है. अदालत ने जोर देकर कहा था कि आरोपों की सावधानीपूर्वक जांच की जानी चाहिए ताकि निर्दोष पक्षों को अनावश्यक रूप से हानि न पहुंचे.

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इससे पहले भी सुप्रीम कोर्ट समेत देश की कई अदालतों ने इस कानून पर सवाल उठाए थे.सुप्रीम कोर्ट ने आठ फरवरी 2022 को एक फैसले में कहा था कि 498A (दहेज प्रताड़ना कानून) में पति के रिश्तेदारों के खिलाफ आरोप के बिना केस चलाना कानूनी प्रक्रिया का दुरुपयोग है.दिल्ली हाई कोर्ट ने 2003 में एक मामले की सुनवाई के दौरान कहा था कि कई बार लड़की न सिर्फ अपने पति, बल्कि उसके कई रिश्तेदारों पर भी केस दर्ज करा देती है. अदालत ने कहा था कि धारा-498A शादी की बुनियाद को हिला रही है.

किस उद्देश्य से बनाई गई थी धारा 498A

भारतीय दंड संहिता की धारा 498A का उद्देश्य महिलाओं के प्रति क्रूरता और दहेज की मांग से जुड़ी हिंसा को रोकना था. इसका उद्देश्य महिला के साथ क्रूरता करने वाले उसके पति या उसके रिश्तेदारों को सजा देना है. इस धारा में ‘क्रूरता’ से आशय कोई भी ऐसा व्यवहार जो महिला को आत्महत्या करने के लिए प्रेरित कर सकता है या उसके शारीरिक या मानसिक स्वास्थ्य को गंभीर नुकसान पहुंचा सकता से है. इसमें किसी महिला को उसके परिवार से अवैध संपत्ति या दहेज की मांग को पूरा करने के लिए मजबूर करने वाले व्यवहार को भी क्रूरता माना गया है.

ये मामले गैर जमानती और संज्ञेय होते हैं. इन मामलों में अदालत से बाहर कोई समझौता नहीं हो सकता है. इस वजह से इस कानून का दुरुपयोग आसान हो जाता है. इसी वजह से अदालतों ने समय-समय पर इसकी शक्ति के प्रति सावधान रहने की जरूरत पर जोर दिया है, ताकि इसे संरक्षण के बजाय उत्पीड़न का साधन न बनने दिया जाए. धारा 498A के दुरुपयोग पर कई मामलों में अदालत ने माना है कि अक्सर ये शिकायतें जल्दबाजी में और व्यक्तिगत बदले की भावना से दाखिल की जाती हैं.अदालतों का कहना है कि महिलाओं की सुरक्षा और दुरुपयोग की रोकथाम के बीच संतुलन बनाए रखने के लिए न्यायिक सतर्कता और विधायी सुधार की जरूरत है. 

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